न्यायिक पृथक्करण के अनुमोदन के पश्चात एक वर्ष तक पक्षकारों के बीच कोई सहवास नहीं होने पर तलाक का निर्णय बरकरार रखा जा सकता है: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10 के तहत यदि वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के निर्णय अथवा न्यायिक पृथक्करण के निर्णय के पश्चात एक वर्ष तक पक्षकारों के बीच कोई सहवास नहीं होता है तो पृथक्करण का निर्णय बरकरार रखा जाएगा।
पक्षकारों ने 08.12.2001 को विवाह किया। प्रतिवादी-पति ने आरोप लगाया कि अपीलकर्ता-पत्नी ने 2002 में उसे छोड़ दिया। अपीलकर्ता ने पक्षों के बीच वैवाहिक संबंध को पुनर्जीवित नहीं किया, इसलिए उसने अपने वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना की मांग करते हुए कार्यवाही शुरू की।
पत्नी ने प्रतिवाद दायर किया और न्यायिक पृथक्करण की डिक्री मांगी। इसके बाद 2006 में प्रतिवादी-पति द्वारा शुरू किए गए मामले को खारिज कर दिया गया। अधिनियम की धारा 10 के तहत अपीलकर्ता द्वारा मांगी गई न्यायिक पृथक्करण की डिक्री मंजूर कर ली गई।
इसके एक साल बाद पति ने दावा किया कि दोनों पक्ष एक साथ नहीं रहते थे, जबकि पत्नी ने दावा किया कि वे साथ रहते थे। पति की बात पर विश्वास करते हुए ट्रायल कोर्ट ने दोनों पक्षों को तलाक की डिक्री दे दी जिसे अपीलकर्ता-पत्नी ने हाईकोर्ट में चुनौती दी।
न्यायालय ने पाया कि ट्रायल कोर्ट ने माना कि पति के इस दावे पर संदेह करने का कोई कारण नहीं था कि दोनों पक्ष साथ नहीं रहते थे। इस प्रकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री से एक वर्ष के भीतर उनका विवाह पुनर्जीवित नहीं हुआ। यह माना गया कि यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं था कि 11.05.2006 के बाद किसी भी समय विवाह पुनर्जीवित हुआ।
इसके अलावा अधिनियम की धारा 13(1ए) की प्रयोज्यता के संबंध में न्यायालय ने माना कि यह पक्षकारों द्वारा सहवास पर निर्भर करेगा जो स्पष्ट रूप से नहीं हुआ।
जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह और जस्टिस डोनाडी रमेश की पीठ ने कहा,
"यदि इसके लिए निर्दिष्ट वैधानिक अवधि के भीतर कोई सहवास नहीं होता है तो प्रभावित पक्ष के लिए निर्धारित वैधानिक अवधि के भीतर कोई सहवास नहीं होने के कारण विवाह विच्छेद के लिए आवेदन करना खुला हो जाता है।"
न्यायालय ने पाया कि उस अवधि के दौरान, पक्षों के बीच कोई सहवास नहीं हुआ था और इस प्रकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री उचित थी।
तदनुसार, पत्नी द्वारा दायर अपील खारिज कर दी गई।
केस टाइटल- पूनम बनाम विनय कुमार सिंह @ पंकज