बाल कल्याण समिति के आदेश के तहत नाबालिग की कस्टडी को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में चुनौती नहीं दी जा सकती: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2025-10-07 09:10 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि जब नाबालिग बच्चे की कस्टडी किशोर न्याय (बालकों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2015 के तहत बाल कल्याण समिति (CWC) द्वारा पारित न्यायिक आदेश के अनुसार सौंपी गई हो तो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।

जस्टिस राजेश सिंह चौहान और जस्टिस सैयद कमर हसन रिज़वी की खंडपीठ ने एक मां द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज करते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें उसने अपने 11 वर्षीय बेटे की कस्टडी की मांग करते हुए दावा किया था कि वह उसकी प्राकृतिक अभिभावक है।

याचिका में बच्चे को अदालत के समक्ष पेश करने और उसकी कस्टडी याचिकाकर्ता को सौंपने के निर्देश देने की मांग की गई, जिसमें दावा किया गया कि उसे प्रतिपक्षियों द्वारा अवैध रूप से बाल गृह में रखा गया।

न्यायालय के आदेश के अनुसार बच्चे को पीठ के समक्ष पेश किया गया, जहां उसे बताया गया कि बालक/शिशु वर्तमान में लखनऊ के एक बाल गृह में रह रहा है और एक प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ रहा है, जहां उसका प्रदर्शन अच्छा है।

खंडपीठ ने बच्चे से बातचीत की, जिसके बारे में उसने कहा कि वह एक सामान्य, कुशाग्र और स्वस्थ दिमाग वाला बालक है, जिसमें प्रश्नों को समझने और उनका उत्तर देने की सराहनीय क्षमता है।

जब उससे पूछा गया कि क्या वह अपनी माँ के साथ रहना चाहता है तो बच्चे ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया, क्योंकि उसने कहा कि उसकी माँ उसे केवल दो वर्ष की आयु में छोड़कर चली गई थी। उसने अपने पिता (प्रतिवादी नंबर 7) के साथ रहने में भी अनिच्छा व्यक्त की।

इसके बजाय उसने बाल गृह में ही रहने की इच्छा व्यक्त की, जहाँ उसने दावा किया कि वह खुश है और उसकी अच्छी देखभाल की जा रही है।

अपने 17-पृष्ठ के आदेश में न्यायालय ने दर्ज किया कि पिता ने पहले एक महिला साथी को अपनी माँ बताकर लड़के से मिलने की कोशिश की थी, जिसे बाल गृह के कर्मचारियों ने झूठा पाया। पिता ने अदालत के समक्ष यह बात स्वीकार की और कहा कि वह अपने बेटे के साथ रहना चाहता है और उसकी उचित देखभाल करेगा।

एजीए ने बाल कल्याण समिति अमेठी के रिकॉर्ड और रिपोर्टों का हवाला देते हुए दलील दी कि चूंकि लड़के के माता-पिता अलग-थलग हैं और मां ने पिता के खिलाफ FIR दर्ज कराई और उक्त FIR में पिता को कुछ समय के लिए कारावास भी भुगतना पड़ा।

इस तथ्य के कारण और बच्चे की मां के साथ रहने की अनिच्छा को देखते हुए CWC ने 12 जून, 2025 के आदेश द्वारा बच्चे को उसके कल्याण और शिक्षा के लिए बाल गृह में रखा।

एजीए ने तर्क दिया कि बच्चे को हिरासत में रखना बाल कल्याण समिति द्वारा किशोर न्याय अधिनियम के तहत पारित न्यायिक आदेश के अनुसार है, इसलिए इसे अवैध हिरासत नहीं माना जा सकता।

उन्होंने आगे कहा कि ऐसे आदेश के विरुद्ध किसी भी शिकायत का निपटारा अधिनियम की धारा 101 और 102 के अंतर्गत अपील या पुनर्विचार जैसे वैधानिक उपायों के माध्यम से किया जाना चाहिए, न कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के माध्यम से।

राज्य के तर्क से सहमत होते हुए खंडपीठ ने कहा कि जब किसी नाबालिग की कस्टडी किसी सक्षम प्राधिकारी जैसे मजिस्ट्रेट या बाल कल्याण समिति के न्यायिक आदेश से उत्पन्न होती है तो बंदी प्रत्यक्षीकरण कार्यवाही में उसकी समीक्षा नहीं की जा सकती।

खंडपीठ ने कहा,

"ऐसे मामले में जहां किशोर न्याय अधिनियम 2015 के तहत गठित बाल कल्याण समिति द्वारा पारित आदेश के अनुसार याचिकाकर्ता की कस्टडी सौंप दी गई, उक्त आदेश को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की मांग करने वाली याचिका में चुनौती नहीं दी जा सकती।"

इस संबंध में खंडपीठ ने रचना एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 2021 के मामले में हाईकोर्ट की फुल बेंच के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया कि यदि कस्टडी न्यायिक मजिस्ट्रेट या सक्षम न्यायालय या बाल कल्याण समिति द्वारा पारित न्यायिक आदेशों के अनुसरण में है तो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका मान्य नहीं होगी।

न्यायालय ने यह भी कहा कि किशोर न्याय अधिनियम बच्चों के कल्याण देखभाल, संरक्षण और पुनर्वास के लिए एक व्यापक तंत्र प्रदान करता है।

न्यायालय ने आगे कहा,

बाल कल्याण समिति अधिनियम की धारा 27 के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट के समकक्ष शक्तियों का प्रयोग करती है, इसलिए उसके आदेश न्यायिक प्रकृति के हैं और उन पर अपील की जा सकती है।

खंडपीठ ने यह भी कहा कि माता-पिता के बीच कस्टडी के मुद्दों का निर्धारण संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत किया जाना चाहिए, जहां बच्चे के कल्याण और वरीयता की विस्तृत जांच की जा सकती है।

परिणामस्वरूप कोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका यह कहते हुए खारिज की कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत असाधारण क्षेत्राधिकार का कोई मामला नहीं बनता।

आख़िर में न्यायालय ने पिता को अभिभावक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम 1890 के अंतर्गत बच्चे की अभिरक्षा या उससे मिलने के अधिकार के लिए उपयुक्त आवेदन दायर करने की स्वतंत्रता प्रदान की।

खंडपीठ ने निर्देश दिया कि ऐसी कार्यवाही लंबित रहने तक पिता को सक्षम प्राधिकारियों की पूर्व अनुमति और पर्यवेक्षण के अधीन महीने में एक बार तीन घंटे के लिए दयानंद बाल सदन में बच्चे से मिलने की अनुमति दी जा सकती है।

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