धर्म परिवर्तन पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी: धर्म की श्रेष्ठता का दावा सेक्युलरिज़्म के खिलाफ, संविधान जबरन धर्म परिवर्तन की इजाज़त नहीं देता

Update: 2025-05-17 09:56 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा कि भारतीय संविधान सभी नागरिकों को स्वतंत्र रूप से धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार देता है लेकिन यह जबरन या धोखे से किए गए धर्म परिवर्तन का समर्थन नहीं करता।

जस्टिस विनोद दिवाकर की एकल पीठ ने कहा,

"अनुच्छेद 25(1) अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, पालन करने और प्रचार करने का अधिकार देता है। लेकिन यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है।"

अदालत ने कहा कि यह सीमाएं इसलिए जरूरी हैं ताकि धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर समाजिक ताने-बाने को नुकसान न पहुंचाया जा सके या किसी व्यक्ति या समुदाय की भलाई को खतरा न हो।

यह टिप्पणी FIR रद्द करने की याचिका को खारिज करते हुए दी गई, जिसमें चार लोगों पर उत्तर प्रदेश अवैध धर्म परिवर्तन निषेध अधिनियम 2021 के तहत मामला दर्ज किया गया। आरोप था कि आरोपी लोग पैसों और मुफ्त इलाज का लालच देकर ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित कर रहे थे।

अदालत ने पाया कि आरोप प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आते हैं और प्राथमिकी दर्ज करना तथा जांच उचित था।

अपने 12 पेज के आदेश में अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 25 द्वारा दी गई धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति धोखे या दबाव में धर्म परिवर्तन कराए और उसे धार्मिक प्रचार कहे।

धर्म परिवर्तन अधिनियम 2021 की वैधता पर बोलते हुए कोर्ट ने कहा कि यह कानून सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य की रक्षा के उद्देश्य से बनाया गया।

कोर्ट ने कहा कि अधिनियम का मुख्य उद्देश्य ऐसे धर्म परिवर्तनों को रोकना है, जो छल, बल, प्रलोभन, अनुचित दबाव या केवल विवाह के माध्यम से किए जाते हैं। इस तरह की पद्धतियां सामाजिक सद्भाव को नुकसान पहुंचा सकती हैं।

सबसे अहम बात यह रही कि कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी एक धर्म को दूसरे धर्म से बेहतर मानना भारतीय धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है।

कोर्ट ने कहा,

"किसी धर्म को स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ मानना यह दर्शाता है कि बाकी धर्म उससे कमतर हैं। यह सोच भारतीय संविधान की सेक्युलर भावना के बिल्कुल विपरीत है। राज्य को सभी धर्मों से समान दूरी रखनी चाहिए।”

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि FIR दर्ज करने वाला पुलिस अधिकारी (SHO) कोई भी पीड़ित व्यक्ति की श्रेणी में आता है और वह संज्ञेय अपराध की स्थिति में मामला दर्ज कर सकता है।

2024 में हुए संशोधन का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि अब कोई भी व्यक्ति जो किसी अवैध धर्म परिवर्तन की जानकारी रखता है, FIR दर्ज करा सकता है। यह विधायी मंशा को स्पष्ट करता है और कानून की प्रभावशीलता सुनिश्चित करता है।

नतीजतन कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की FIR रद्द करने की मांग को खारिज कर दिया।

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