CrPc की धारा 197 के तहत सुरक्षा का दावा करने के लिए दस्तावेज तैयार करना, धन का दुरुपयोग करना 'आधिकारिक कर्तव्य' का हिस्सा नहीं: इलाहाबाद हाइकोर्ट
इलाहाबाद हाइकोर्ट ने कहा कि दस्तावेज़ में हेरफेर करना या धन का दुरुपयोग करना सीआरपीसी की धारा 197 के तहत सुरक्षा का दावा करने के लिए लोक सेवक के आधिकारिक कर्तव्य का हिस्सा नहीं।
सीआरपीसी की धारा 197 अधिकारी को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाने का प्रयास करती है, जिस पर अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान कार्य करते समय या कार्य करने के दौरान किए गए अपराध का आरोप है, सिवाय इसके कि सक्षम प्राधिकारी की पूर्व मंजूरी हो। अदालत को ऐसे अपराध का संज्ञान लेने से रोकती है।
जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में जहां लोक सेवक की कार्रवाई या चूक आधिकारिक कर्तव्य के दायरे में आती है या नहीं, इस बारे में थोड़ी सी भी अनिश्चितता मौजूद है, इस मुद्दे का निर्धारण साक्ष्य के आधार पर मुकदमे की कार्यवाही के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए।
अदालत ने कहा,
“जब तक मुकदमे के दौरान सबूतों के आधार पर उस मुद्दे का फैसला नहीं किया जाता, तब तक आपराधिक कार्यवाही को सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शक्ति का प्रयोग करके रद्द नहीं किया जा सकता, जब खुद को लोक सेवक होने का दावा करने वाला व्यक्ति आरोप लगाता है कि अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में उसका कार्य गलत है।"
इस प्रकार ध्यान देते हुए हाइकोर्ट ने पूर्व सरकारी एक्टिंग इंजीनियर द्वारा दायर रद्द करने की याचिका खारिज कर दी, जिस पर जाली कनेक्शन पर्ची पेश करने के आरोप में आईपीसी की धारा 465 के तहत मामला दर्ज किया गया।
वर्ष 2019 में उन्होंने इस आधार पर आपराधिक कार्यवाही को चुनौती देते हुए हाइकोर्ट का रुख किया कि उपरोक्त शिकायत दर्ज करने से पहले या उपरोक्त शिकायत का संज्ञान लेने से पहले आईपीसी की धारा 197 के तहत पूर्व मंजूरी नहीं ली गई थी।
दूसरी ओर राज्य की ओर से पेश एजीए ने तर्क दिया कि विवादित कार्यवाही स्वयं साक्ष्य चरण में है और आवेदक ने विवादित कार्यवाही में जमानत भी प्राप्त कर ली है। वह इस आपत्ति को उचित चरण में उठा सकता है।
कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने शंभू नाथ मिश्रा बनाम यूपी राज्य और अन्य 1997 के मामले में फैसला सुनाया कि रिकॉर्ड बनाना या सार्वजनिक धन का दुरुपयोग करना लोक सेवक का आधिकारिक कर्तव्य नहीं है।
न्यायालय ने शदाक्षरी बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य 2024 मामले में के हालिया फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि फर्जी दस्तावेज बनाने के कृत्य के लिए उसके आधिकारिक कर्तव्य का हिस्सा नहीं बनने वाले किसी लोक सेवक पर मुकदमा चलाने के लिए सीआरपीसी की धारा 197 के अनुसार अभियोजन की पूर्व मंजूरी की आवश्यकता नहीं है।
इसे देखते हुए न्यायालय ने कहा कि आधिकारिक दस्तावेजों को गढ़ने का कोई विशेष कार्य लोक सेवक के आधिकारिक कर्तव्य का हिस्सा है या नहीं, यह जांच का विषय है और उस आधार पर कार्यवाही रद्द नहीं की जा सकती।
इसके अलावा, मामले के रिकॉर्ड को देखते हुए अदालत ने कहा कि बिजली विभाग के रजिस्टर में 2009 में दर्ज की गई कथित डिस्कनेक्शन स्लिप, जिसे आवेदक ने बचाव के रूप में पेश किया, 2008 में ही तैयार की गई थी। इसलिए प्रथम दृष्टया उसका यह नहीं कहा जा सकता कि यह कृत्य उनके आधिकारिक कर्तव्य का निर्वहन है।
अदालत ने आगे कहा,
"वैसे भी यह सबूत का मामला है। इस मुद्दे का निर्णय मुकदमे के दौरान किया जा सकता है कि क्या आवेदक, जाली डिस्कनेक्शन पर्ची का उत्पादन करते समय अपना कर्तव्य निभा रहा है या उपभोक्ता फोरम के समक्ष कार्यवाही में बचाव के रूप में जाली डिस्कनेक्शन पर्ची का उत्पादन करना उसके कर्तव्य से परे है। मुकदमे के दौरान आवेदक के लिए यह बचाव लेने का मुद्दा अभी भी खुला है।"
इसके साथ ही अदालत ने ने विवादित कार्यवाही रद्द करने से इनकार कर दिया।
अपीयरेंस
संशोधनवादी के वकील- जैनेंद्र कुमार मिश्रा
विपक्षी पक्ष के वकील- जी.ए. नवल किशोर मिश्रा और उपेन्द्र विक्रम सिंह
केस टाइटल - वेद प्रकाश गोविल बनाम यूपी राज्य।
केस साइटेशन- लाइव लॉ (एबी) 55 2024