बार काउंसिल से बरी होना आपराधिक मुकदमा रद्द करने का आधार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसले में साफ कहा कि बार काउंसिल द्वारा की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही में किसी वकील का बरी या दोषमुक्त होना अपने-आप में उसके खिलाफ दर्ज किसी वैध आपराधिक मामले को समाप्त करने का आधार नहीं बन सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि आपराधिक कार्यवाही और अनुशासनात्मक कार्यवाही अलग-अलग प्रकृति की होती हैं और दोनों एक साथ चल सकती हैं, क्योंकि उनके उद्देश्य प्रक्रिया और प्रमाण के मानक भिन्न होते हैं।
यह टिप्पणी जस्टिस जय प्रकाश तिवारी ने उस मामले की सुनवाई के दौरान की, जिसमें पेशे से एडवोकेट योगेश कुमार भेंटवाल ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत याचिका दायर कर गाजियाबाद के अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित समन आदेश को रद्द करने की मांग की थी। यह समन आदेश उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 420 के तहत दर्ज एक शिकायत मामले में पारित किया गया।
मामले की पृष्ठभूमि के अनुसार, अगस्त, 2012 में महावीर सिंह नामक व्यक्ति ने एडवोकेट एक्ट 1961 की धारा 35 के तहत बार काउंसिल में शिकायत दर्ज कराई। आरोप है कि भेंटवाल ने अनुकूल निर्णय दिलाने का आश्वासन देकर 6 लाख 36 हजार रुपये बतौर फीस लिए और धोखाधड़ी की। फरवरी, 2014 में बार काउंसिल की अनुशासन समिति ने एकतरफा आदेश पारित करते हुए उन्हें दोषी ठहराया और पांच वर्षों के लिए निलंबित कर दिया तथा देशभर में अदालतों में प्रैक्टिस करने से वंचित कर दिया।
हालांकि, अक्टूबर, 2014 में भेंटवाल द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका पर यह आदेश और मूल शिकायत दोनों ही निरस्त कर दिए गए। इसके बाद शिकायतकर्ता ने वही आरोप लगाते हुए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट गाजियाबाद की अदालत में आपराधिक शिकायत दाखिल की जिस पर धारा 420 आईपीसी के तहत मामला दर्ज हुआ और वर्ष 2017 में समन आदेश जारी किया गया।
समन आदेश को चुनौती देते हुए भेंटवाल ने हाईकोर्ट में दलील दी कि चूंकि बार काउंसिल की अनुशासन समिति ने शिकायत खारिज कर उन्हें दोषमुक्त कर दिया, इसलिए उसी तथ्यों पर आधारित आपराधिक मामला दुर्भावनापूर्ण है और न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। साथ ही कहा गया कि मामला पूरी तरह सिविल प्रकृति का है और यह कथित तौर पर तहसील कोर्ट के कुछ भ्रष्ट कर्मचारियों के इशारे पर दर्ज कराया गया, जिनके खिलाफ उन्होंने आपत्ति उठाई थी।
राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त शासकीय वकील ने इन दलीलों का विरोध करते हुए कहा कि रिकॉर्ड पर पर्याप्त सामग्री मौजूद है, जिसके आधार पर मुकदमे की सुनवाई आगे बढ़ाई जा सकती है।
जस्टिस जय प्रकाश तिवारी ने याचिकाकर्ता की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में बरी होना आपराधिक मुकदमे को रद्द करने का स्वतः आधार नहीं बन सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि एडवोकेट एक्ट के तहत होने वाली कार्यवाही अर्ध-दंडात्मक प्रकृति की होती है, जिसका उद्देश्य विधि व्यवसाय की गरिमा और नैतिकता की रक्षा करना है, जबकि आपराधिक मुकदमे का उद्देश्य अपराध की जवाबदेही तय करना होता है।
अदालत ने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत निहित शक्तियां बहुत सीमित हैं और उनका प्रयोग केवल उन्हीं दुर्लभ स्थितियों में किया जा सकता है, जहां कार्यवाही प्रथम दृष्टया पूरी तरह अवैध या न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत हो।
हाईकोर्ट ने माना कि इस मामले में उठाए गए अधिकांश प्रश्न तथ्यात्मक विवाद से जुड़े हैं, जिनका निस्तारण इस स्तर पर CrPC की धारा 482 की कार्यवाही में नहीं किया जा सकता। साथ ही कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल यह कहना कि मामला सिविल प्रकृति का है, आपराधिक कार्यवाही रद्द करने का आधार नहीं बन सकता, जब प्रथम दृष्टया आरोपों से अपराध के आवश्यक तत्व सामने आ रहे हों।
अंततः कोर्ट ने यह पाते हुए कि मजिस्ट्रेट ने शिकायतकर्ता व गवाहों के बयान पर विचार करने के बाद कानून के दायरे में रहते हुए समन आदेश पारित किया, याचिका खारिज कर दी और आपराधिक मुकदमे को जारी रहने दिया।