इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निर्णय, प्रौद्योगिकी संस्थानों के एसोसिएट प्रोफेसर सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त विशेषज्ञ नहीं
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश जल निगम में विभिन्न पदों पर नियुक्ति के विवाद का निपटारा करते हुए माना कि प्रौद्योगिकी संस्थानों के एसोसिएट प्रोफेसर इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की जांच के लिए सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत मान्यता प्राप्त विशेषज्ञ नहीं हैं।
जस्टिस अजीत कुमार ने कहा,
“प्रौद्योगिकी संस्थानों के एसोसिएट प्रोफेसरों से मांगी गई विशेषज्ञ राय न तो सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत मान्यता प्राप्त विशेषज्ञता थीं, न ही ये राय अधिनियम, 2000 के तहत निर्धारित कानूनी ढांचे के भीतर स्वीकार्य मानी जा सकती थीं, इसके अलावा ये राय निर्णायक नहीं थीं।”
पृष्ठभूमि
मामले के तहत जब उत्तर प्रदेश जल निगम शहरी और ग्रामीण संस्थाओं में विभाजित हो गया, तो 2016 में विभिन्न स्तरों पर रोजगार के लिए आवेदन मांगे गए। प्रत्येक पद के लिए विभिन्न शिफ्टों में कंप्यूटर आधारित टेस्ट (सीबीटी) आयोजित किए गए, जिसमें प्रश्नपत्रों के अलग-अलग सेट बनाए गए। परिणाम के बाद, प्रत्येक वर्ग के कर्मचारी के लिए अलग-अलग साक्षात्कार बोर्ड गठित किए गए। साक्षात्कार प्रक्रिया के समय में कुछ विसंगतियां देखी गईं।
अंतत: स्टेनोग्राफर के पद के लिए चयन रद्द कर दिया गया, जबकि सहायक अभियंता, कनिष्ठ अभियंता और नियमित ग्रेड क्लर्क के पदों के लिए चयन सूची नियुक्ति पत्र के साथ जारी की गई।
मेसर्स एप्टेक लिमिटेड एक निजी एजेंसी है, जिसने पूरी चयन प्रक्रिया को आउटसोर्स किया था। एप्टेक और यूपी जल निगम के बीच डेटा रिटेंशन एग्रीमेंट के अनुसार, सभी डेटा को सेकेंडरी सेंटर पर 6 महीने तक स्टोर किया जाना था।
कोर्ट ने कहा कि मास्टर आंसर की तब तक प्रकाशित नहीं की गई, जब तक कि आरटीआई दायर करके इसका अनुरोध नहीं किया गया और फिर जल निगम ने एप्टेक से सीबीटी की आसंर की ऑनलाइन प्रकाशित करने को कहा। आसंर की के प्रकाशन के कारण अभ्यर्थियों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और दावा किया कि उन्हें गलत तरीके से चयन सूची से बाहर कर दिया गया है। चूंकि सभी ग्रेड के लिए आसंर की और प्रश्न पत्र में कई विसंगतियां पाई गईं, इसलिए निगम ने 2017 में 2 इन-हाउस जांच शुरू की। इसके बाद, पूरी चयन प्रक्रिया और नियुक्तियों को रद्द कर दिया गया, जिसके कारण पहले से नियुक्त उम्मीदवारों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
हाईकोर्ट ने इस आधार पर आदेश को रद्द कर दिया कि प्रत्येक याचिकाकर्ता को सेवा से हटाने से पहले अपना स्पष्टीकरण देने का अधिकार है। निगम को नए आदेश पारित करने का निर्देश दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप नहीं किया, हालांकि, निगम को मेरिट सूची को फिर से तैयार करने की दलील उठाने की स्वतंत्रता दी। हाईकोर्ट ने यह कहते हुए पुनर्विचार याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया कि नए आदेश पारित करते समय, निगम के पास मामले के हर पहलू पर गौर करने का अधिकार है।
जांच के बाद, आईपीसी, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और सूचना और प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत एप्टेक के अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही शुरू की गई। शीर्ष न्यायालय ने पुनर्विचार याचिका के खिलाफ एसएलपी में निगम को हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने का आदेश दिया।
इस आदेश के अनुसरण में, 2020 में, निगम ने निष्कर्ष निकाला कि वह सहायक अभियंताओं, कनिष्ठ अभियंताओं और नियमित ग्रेड क्लर्कों के संबंध में चयन प्रक्रिया को नहीं बचा सकता और दागी और बेदाग उम्मीदवारों को अलग नहीं कर सकता। इन आदेशों को हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई थी।
फैसला
यह मानने के लिए आईटी अधिनियम की धारा 79-ए पर भरोसा किया गया कि सीएफएसएल, हैदराबाद केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित फोरेंसिक एजेंसी थी और इस प्रकार, इसकी रिपोर्ट साक्ष्य के रूप में मूल्यवान थी। यह माना गया कि सीएफएसएल की रिपोर्ट "दागी उम्मीदवारों की पहचान करने और उन्हें अलग करने के लिए पर्याप्त सबूत थी।"
इसके अलावा, यह माना गया कि एप्टेक सेकेंडरी स्टोरेज के माध्यम से डेटा प्रदान करके अनुबंध का उल्लंघन नहीं कर रहा था क्योंकि पार्टियों के बीच अनुबंध में ऐसा कुछ भी नहीं था जो एप्टेक को ऐसा करने से रोकता हो। यह माना गया कि क्लाउड सर्वर से डेटा हटाना किसी भी समझौते का उल्लंघन नहीं था।
"इस प्रकार, सीएफएसएल रिपोर्ट को किसी भी चुनौती के अभाव या सीएफएसएल रिपोर्ट में स्टोरेज डिवाइस, यानि, 6 हार्ड डिस्क, जिसमें क्लाउड सर्वर CtrlS से लिए गए डेटा की सीधी मिरर इमेज वाली एक हार्ड डिस्क भी थी, में संग्रहित डेटा की सत्यता पर सवाल उठाने वाली कोई बात सामने न आने के बाद, यह सुरक्षित रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी भी विवाद के अभाव में हार्ड डिस्क से प्राप्त डेटा प्राथमिक स्रोत क्लाउड सर्वर से लिया गया सही डेटा था।"
यह देखते हुए कि तीनों पदों के लिए सीबीटी में केवल 1.4 से 8% प्रश्न गलत थे, न्यायालय ने माना कि ऐसी त्रुटियों के लिए पूरी परीक्षा को रद्द नहीं किया जा सकता।
“इस प्रकार, संदिग्ध प्रश्नों और संदिग्ध उत्तरों का प्रतिशत या संख्या बहुत कम है और इसे अपने आप में यह मानने के लिए पर्याप्त आधार नहीं कहा जा सकता कि सीबीटी के संचालन के संबंध में पूरी चयन प्रक्रिया में समझौता किया गया था।”
न्यायालय ने इस पहलू पर एप्टेक का साथ दिया कि वह प्रश्नपत्र और आसंर की की तैयारी में शामिल नहीं था और उसने इसे विशेषज्ञों को आउटसोर्स किया था। इसने विशेष रूप से माना कि पुलिस द्वारा विभिन्न व्यक्तियों के दर्ज किए गए बयान, जिनके आधार पर एसआईटी रिपोर्ट बनाई गई थी, अस्वीकार्य साक्ष्य थे। यह माना गया कि एसआईटी रिपोर्ट का अपने आप में कोई साक्ष्य मूल्य नहीं था।
जस्टिस कुमार ने कहा कि न्यायालय खंडपीठ के पिछले निर्णय से बंधा हुआ है, उन्होंने कहा कि “बोर्ड के अध्यक्ष द्वारा शक्ति के प्रयोग, रिक्तियों की उपलब्धता का प्रश्न, भर्ती अभियान चलाने के लिए राज्य सरकार से मंजूरी/अनुमति के मुद्दे आदि के बारे में प्रतिवादी निगम को अब विचार करने की आवश्यकता नहीं है। निगम को केवल यह पता लगाना था कि चयन की प्रक्रिया में कोई प्रणालीगत धोखाधड़ी तो नहीं हुई है, ताकि यह माना जा सके कि पूरी चयन प्रक्रिया में समझौता किया गया है और इसलिए चयन रद्द कर दिए गए हैं और इसके परिणामस्वरूप नियुक्तियां भी रद्द कर दी गई हैं, इसलिए दागी उम्मीदवारों की पहचान करने और उन्हें अलग करने तथा उन्हें व्यक्तिगत रूप से कारण बताओ नोटिस देने की कोई गुंजाइश नहीं बची है।”
वेंसेबरी विधि के तर्कसंगतता के सिद्धांतों (Principles of Wednsebury Law of Reasonableness) को लागू करते हुए न्यायालय ने माना कि इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की जांच केवल आईटी अधिनियम और नियमों के तहत प्रक्रिया के अनुसार विशेषज्ञों द्वारा की जानी चाहिए। न्यायालय ने प्रौद्योगिकी संस्थानों के सहायक प्रोफेसरों द्वारा सीडी से किए गए साक्ष्य की जांच पर सवाल उठाए।
इसके अलावा, न्यायालय ने माना कि मूल रिकॉर्डों की जांच के अभाव में, विशेषज्ञ की राय पर आधारित निर्णय टिकाऊ नहीं था। यह माना गया कि एप्टेक द्वारा गहरी धोखाधड़ी के बारे में तर्क टिकने लायक नहीं थे।
जस्टिस कुमार ने कहा, "सामने आए डेटा में अधिकांश उम्मीदवारों के बारे में जानकारी होनी चाहिए और सिस्टम उल्लंघन का मामला स्थापित करने के लिए असामान्य स्कोर को भी शामिल किया जाना चाहिए।"
हालांकि, कोर्ट ने कहा कि सीएफएसएल रिपोर्ट के अनुसार 169 उम्मीदवारों को अनुचित लाभ दिया गया और माना कि चयनकर्ताओं को धोखाधड़ी का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती जो बाहरी विचारों पर आधारित है। यह माना गया कि यह गड़बड़ी जल निगम के अधिकारियों द्वारा की गई थी, जिनके पास प्रोसेस्ड रिजल्ट और अंतिम सीबीटी मेरिट सूची को देखने के लिए पासवर्ड और लॉगिन आईडी तक पहुंच थी।
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि सीएफएसएल रिपोर्ट के आधार पर, इसमें नामित उम्मीदवारों से एसआईटी द्वारा पूछताछ की जानी चाहिए थी, जो नहीं की गई।
सीएफएसएल रिपोर्ट पर भरोसा करते हुए, कोर्ट ने माना कि रिपोर्ट में नामित 169 उम्मीदवार अपनी नियुक्ति को रद्द करने के संबंध में व्यक्तिगत सुनवाई के किसी भी अवसर के हकदार नहीं हैं क्योंकि उनकी नियुक्ति दागी थी।
कोर्ट ने कहा,
“इन परिस्थितियों में, उन 169 उम्मीदवारों के स्वयं के प्रयासों के अलावा कोई भी व्यक्ति चयन सूची में उनके अंकों को नहीं बदल सकता था, जिसे प्रबंध निदेशक उत्तर प्रदेश जल निगम को प्रकाशन के लिए एजेंसी मेसर्स एप्टेक लिमिटेड को वापस भेजने के लिए भेजा गया था। इस प्रकार मेरे अनुसार ये व्यक्ति नोटिस के भी पात्र नहीं हैं और इसलिए उनकी उम्मीदवारी को उनके नियुक्ति आदेशों सहित खारिज/रद्द किया जाना चाहिए और तदनुसार, उनके दावों को खारिज किया जाना चाहिए।”
इस प्रकार, सीएफएसएल रिपोर्ट में नामित 169 उम्मीदवारों को छोड़कर सभी याचिकाकर्ताओं के संबंध में विवादित आदेशों को रद्द कर दिया गया।
केस टाइटल: समराह अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य [रिट - ए नंबर - 7076/2021]
प्रौद्योगिकी संस्थानों के एसोसिएट प्रोफेसर सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त विशेषज्ञ नहीं हैं: इलाहाबाद उच्च न्यायालय