34 साल से लंबित आपराधिक कार्यवाही पर रोक लगाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य की मुकदमेबाजी नीति पर हलफनामा मांगा
शुक्रवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दंगा करने के आरोपी एक व्यक्ति के खिलाफ 34 साल पुराने मामले में राज्य/अभियोजन पक्ष द्वारा मामले को समाप्त करने में की गई अत्यधिक देरी को ध्यान में रखते हुए मामले में पूरी आपराधिक कार्यवाही पर रोक लगाई।
जस्टिस सौरभ लवानिया की पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार के महानिदेशक (अभियोजन) और अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह विभाग) को राज्य सरकार की मुकदमेबाजी नीति के संबंध में अपने व्यक्तिगत हलफनामे दाखिल करने का भी निर्देश दिया।
पीठ ने मामले की अगली सुनवाई 30 जनवरी के लिए निर्धारित करते हुए आदेश दिया,
“महानिदेशक (अभियोजन), उत्तर प्रदेश, लखनऊ और अतिरिक्त मुख्य सचिव, गृह विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा वर्तमान आवेदन के जवाब में व्यक्तिगत हलफनामे आज से दो सप्ताह के भीतर दाखिल किए जाएं। संबंधित अधिकारी हलफनामे में उत्तर प्रदेश राज्य की मुकदमेबाजी नीति के बारे में भी संकेत देंगे, जिसमें वर्तमान मामले से मिलते-जुलते मामले भी शामिल हैं।”
अदालत मुख्य रूप से आरोपी (मधुकर शर्मा) द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रही थी, जिसने लखनऊ के SCJM न्यायालय द्वारा पारित आरोपपत्र और समन आदेश (11 फरवरी, 1994) रद्द करने की मांग की थी। साथ ही धारा 147, 353, 452, 427 IPC और आपराधिक कानून संशोधन की धारा 7 और धारा 2 क्षति संपत्ति अधिनियम के तहत एक मामले की पूरी कार्यवाही रद्द करने की मांग की थी।
संदर्भ के लिए शर्मा पर 1991 में विधानसभा के अंदर और आसपास कारों और अन्य वस्तुओं को तोड़फोड़ करने के कथित अपराध में शामिल एक समूह का हिस्सा होने का आरोप लगाया गया, जबकि नारे लगाते हुए उन्होंने कहा कि वे सरकारी मशीनरी को काम नहीं करने देंगे।
आरोपी ने तर्क दिया कि उसने FIR में उल्लिखित कोई भी कृत्य नहीं किया, न ही उसके खिलाफ आरोपों को पुष्ट करने के लिए जांच अधिकारी द्वारा कोई सबूत एकत्र या प्रस्तुत किया गया।
हाईकोर्ट के समक्ष उसके वकील एडवोकेट अली बिन सैफ ने एडवोकेट कैफ हसन की सहायता से तर्क दिया कि याचिकाकर्ता FIR दर्ज होने के बाद से संबंधित अदालत के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर रह रहा था। आज तक उसे कोई समन नहीं मिला है और जांच करने के बाद ही याचिकाकर्ता को मामले की जानकारी हुई।
यह भी तर्क दिया गया कि ट्रायल कोर्ट ने बिना किसी तामील की रिपोर्ट या ऑर्डर शीट में इसका उल्लेख किए उसके खिलाफ समन जारी करने के बाद सीधे उसके खिलाफ अगस्त 1997 में गैर-जमानती वारंट (NBW) जारी किया और इस तरह, जमानती वारंट जारी न करके गलती की।
इसके अलावा अदालत को सूचित किया गया कि जनवरी 2018 में, याचिकाकर्ता के खिलाफ CrPC की धारा 82 और 83 के तहत आदेश उसकी संतुष्टि दर्ज किए बिना पारित किया गया। इसे देखते हुए आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की प्रार्थना की गई।
इन प्रस्तुतियों की पृष्ठभूमि में एकल जज ने आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करने में राज्य/अभियोजन पक्ष द्वारा की गई देरी और इस तथ्य पर विचार किया कि आपराधिक मामला अधिकतम सात साल की सजा और जुर्माने से दंडनीय अपराधों से संबंधित है।
न्यायालय ने मदन मोहन सक्सेना बनाम राज्य उत्तर प्रदेश और 2 अन्य 2023 लाइव लॉ (एबी) 29 मामले में हाईकोर्ट की टिप्पणियों को भी ध्यान में रखा, जिसमें कहा गया कि मामले में उसका हस्तक्षेप आवश्यक था।
न्यायालय ने मामले में कार्यवाही पर रोक लगाई और राज्य की मुकदमेबाजी नीति पर संबंधित अधिकारियों से हलफनामा मांगा।
केस टाइटल- मधुकर शर्मा बनाम राज्य उत्तर प्रदेश के माध्यम से अपर मुख्य सचिव विभाग होम एलकेओ और अन्य