अगर आरोप निर्धारित नहीं किए जाने से आरोपी के प्रति कोई दुर्भावना पैदा नहीं हुई है तो उसको दोषी करार दिये जाने के फैसले को निरस्त नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी बड़े अपराध में आरोप निर्धारित किए बिना दोषी ठहराने के फैसले को तभी खारिज किया जा सकता है जब आरोपी यह साबित करे कि उसके खिलाफ इससे दुर्भावना पैदा हुई है और इस तरह, न्याय विफल रहा है।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम कामिल मामले में न्यायमूर्ति आर बनुमती और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने आरोपी की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह बात कही। आरोपी का कहना था कि आईपीसी की धारा 302 के तहत उस पर अभी कोई आरोप तय नहीं किया गया है इसलिए इस धारा के तहत उसको दोषी करार नहीं दिया जा सकता।
सीआरपीसी की धारा 464 का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि आरोप के अभाव में सजा निर्धारित करना उसी स्थिति में मुश्किल है जब आरोपी के खिलाफ पूर्वाग्रह की स्थिति पैदा होती है। इस मामले में दायर चार्जशीट पर गौर करने के बाद कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 34 के साथ पढ़ी गई धारा 302 के तहत विशिष्ट अभियोग निर्धारित नहीं किया गया, आरोपी के खिलाफ दायर चार्जशीट का सारांश स्पष्ट रूप से बताता है कि अभियुक्त पर धारा 302 के तहत अभियोग लगाया गया है।
खंडपीठ ने कहा कि निचली अदालत ने जो प्रक्रिया अपनाई है उससे अपीलकर्ता के खिलाफ किसी भी तरह की दुर्भावना पैदा नहीं हुई है और न ही उसको स्वाभाविक न्याय से वंचित किया गया है। अगर अपीलकर्ता को वास्तव में यह विश्वास था कि उसके खिलाफ आईपीसी की 34 और धारा 302 के तहत कोई अभियोग नहीं लगाया गया है तो वह इसके खिलाफ सत्र न्यायालय में आपत्ति उठाई होगी। पीठ ने यह भी कहा कि अपीलकर्ता ने निचली अदालत में सुनवाई के दौरान इस तरह की आपत्ति नहीं उठाई और न ही उसने प्रथम अपीली अदालत हाईकोर्ट में ही अपनी इस आपत्ति को दर्ज कराया।
अदालत ने कहा कि, “ये सभी पहलू स्पष्ट करते हैं कि अपीलकर्ता यह स्पष्ट रूप से समझ रहा था कि उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 34 और 302 के तहत अभियोग लगाया गया है और पूरी सुनवाई के दौरान वह खुद का इन्हीं धाराओं के खिलाफ बचाव कर रहा था।
इसके बाद पीठ ने अपीलकर्ता की याचिका रद्द कर दी और कहा कि उसके खिलाफ किसी भी तरह की दुर्भावना पैदा नहीं हुई है।