मीशा विवाद : हम अधिनायकवादी शासन में नहीं, लोकतांत्रिक राष्ट्र में रह रहे हैं; सुप्रीम कोर्ट ने साहित्य के पाठकों को ज्यादा परिपक्व और सहिष्णु होने का आह्वान किया [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-09-05 12:07 GMT

पुस्तकों पर प्रतिबन्ध का विचारों के मुक्त प्रवाह पर सीधा असर होता है और यह बोलने, विचार व्यक्त करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ है।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने मलयालम उपन्यास मीशा के खिलाफ दायर याचिका को खारिज करते हुए बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं जो देश में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बहस में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।

मुख्य न्यायाधीश मिश्रा ने अपने फैसले के क्रम में याद दिलाया कि हम अधिनायकवादी व्यवस्था में नहीं रह रहे हैं बल्कि लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं जिसमें विचारों के मुक्त प्रवाह और सोचने की स्वतन्त्रता है। उन्होंने पाठकों तथा साहित्य एवं कला प्रेमियों से कहा कि वे परिपक्वता, मानवता और सहिष्णुता के अलिखित संहिता का पालन करें।

कोर्ट ने मीशा के जिस अंश पर आपत्ति की गई है उसके सन्दर्भ और कथानक का उल्लेख करते हुए कहा कि इसमें जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया है उसे किसी भी तरह से अश्लील नहीं कहा जा सकता, मानहानि की परिकल्पना का तो सवाल ही नहीं उठता।

पीठ ने कहा, “अगर पुस्तकों पर इस तरह के आरोपों की वजह से प्रतिबंध लगाया जाने लगा तो यह रचनात्मकता का अंत कर देगा। संवैधानिक अदालतों द्वारा इस तरह का हस्तक्षेप कला को मार देगा। यह सही है कि एक लेखक को मिला स्वतन्त्रता का अधिकार निरंकुश नहीं है, पर किसी भी तरह का प्रतिबन्ध लगाने के पहले कोर्ट का कर्तव्य है कि वह इस बात का पता करे कि क्या वाकई यह मामला संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अधीन आता है या नहीं”।

मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को निरस्त करते हुए फैसले का अंत वोल्तेयर के इस प्रसिद्ध उक्ति से की : हो सकता है की आप जो कह रहे हैं मैं उससे सहमत न होऊँ, पर आपके कहने के अधिकार की रक्षा के लिए मैं अपनी जान देकर भी रक्षा करूंगा।” मुख्य न्यायाधीश ने कहा की जब भी कोई अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की चर्चा करेगा, लेजर के प्रकाश की तरह यह उक्ति उसका पथ प्रदर्शित करेगा।


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