जनहित याचिका दायर करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता होने जैसा दावा करना पर्याप्त नहीं है : मध्य प्रदेश हाईकोर्ट [आर्डर पढ़े]
“यह एक रिवाज जैसा बन गया है कि इस अदालत के समक्ष याचिका दायर करने वाले यह बयान देंते हैं कि वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं और वे वकीलों के खर्च सहित मामले से जुड़े अन्य खर्च अपनी जेब से कर रहे हैं। यह अपने आप में जनहित याचिका दायर करने को उचित नहीं ठहराता”
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा है कि जनहित याचिका के औचित्य को साबित करने के लिए सिर्फ यह कहना पर्याप्त नहीं है कि याचिकाकर्ता सामाजिक कार्यकर्ता है। ऐसे लोगों को जनहित याचिका से जुड़े मुद्दे पर पिछले एक दो वर्षों में उन्होंने क्या काम किया है इस बारे में अदालत के समक्ष रिकॉर्ड पेश करना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता द्वारा गठित पहली पीठ ने एक पुनर्विचार याचिका पर गौर करते हुए यह बात कही। यह याचिका इस अदालत के फैसले के खिलाफ एक स्वघोषित सामाजिक कार्यकर्ता ने दायर की थी।
रिट याचिका में कुछ गांवों को पनपथा अभयारण्य घोषित करने की सरकार की अधिसूचना को चुनौती दी गई है। पीठ ने अपने संक्षिप्त आदेश में इस याचिका को निरस्त करते हुए इसे अदालत में नहीं टिकनेवाला बताया और कहा कि पीड़ित पक्ष भूमि के मालिक हैं और भूस्वामियों की ओर से किसी सामाजिक कार्यकर्ता को याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है।
सामाजिक कार्यकर्ता ने याचिका में दलील दी थी कि याचिका आम लोगों के हित में है क्योंकि भारी संख्या में प्रभावित लोग समाज के वंचित तबके से आते हैं।
पीठ ने कहा कि सिर्फ इस घोषणा के अलावा कि याचिकाकर्ता सामाजिक कार्यकर्ता है कहीं भी इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि उन्होंने उस गाँव में क्या काम किया है। कोर्ट ने कहा, “सिर्फ अपनी पीठ ठोकने वाला यह बयान कि याचिकाकर्ता सामाजिक कार्यकर्ता है, जनहित याचिका दायर करने के लिए पर्याप्त नहीं है बशर्ते कि वह जिन मुद्दों को लेकर याचिका दायर किया है उस क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में उसने क्या काम किया है उसका भी ब्योरा उसे देना चाहिए। यह एक रिवाज जैसा बन गया है कि इस अदालत के समक्ष याचिका दायर करने वाले यह बयान देंते हैं कि वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं और वे वकीलों के खर्च सहित मामले से जुड़े अन्य खर्च अपनी जेब से कर रहे हैं। यह अपने आप में जनहित याचिका दायर करने को उचित नहीं है। जनहित याचिका गरीब और स्थिति से अनजान लोगों या सामाजिक या आर्थिक रूप से खराब स्थिति में रह रहे ऐसे लोगों के मौलिक व अन्य अधिकारों की रक्षा करने के लिए बनाया गया था जो खुद अपनी लड़ाई नहीं लड़ सकते।”
इस पीठ में न्यायमूर्ति विजय कुमार शुक्ला भी शामिल हैं। उन्होंने कहा, “अभयारण्य घोषित करने की वजह से जमीन के मालिकों को कहीं और बसाया गया है और वे इससे दुखी नहीं हैं। वर्ष 2016 में दायर एक रिटर्न में चार गांवों के विस्थापितों को मुआवजा भी दिया जा चुका है। जहां तक पांचवें गांव की बात है, मुआवजे के निर्धारण की प्रक्रिया चल रही है। इसलिए जो याचिका दायर की गई है उसको स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कानूनन जमीन पर जमीन के मालिकों का क़ानूनी हक़ है। अगर इस तरह के लोगों के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है तो वे संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत मिले अधिकारों के तहत खुद इसके खिलाफ कोर्ट आ सकते हैं और जिनकी ये जमीन नहीं है उसको उनकी ओर से याचिका दायर करने की अनुमति नहीं है।”