संसद की स्थाई समिति की रिपोर्टों पर संवैधानिक पीठ के निर्णय का सारांश [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-05-10 06:03 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि अदालतों का संसद की स्थाई समिति की रिपोर्टों पर भरोसा करना संसद के विशेषाधिकारों का हनन नहीं है।

यह फैसला मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, एके सिकरी, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और अशोक भूषण की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने सुनाया।

तथ्य

कोर्ट बहुत सारी जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थे जिनमें से एक याचिका कल्पना मेहता ने दायर की थी। मेहता ने अपनी याचिका में दो टीकों – गर्दासिल और सर्वरिक्स के आंध्र प्रदेश और गुजरात की महिला आदिवासियों पर सर्वाइकल कैंसर के इलाज के लिए प्रयोग करने को चुनौती दी है। उन्होंने आरोप लगाया है कि यह टीका भारत में एमएसडी फार्मास्यूटिकल्स और ग्लैक्सोस्मिथक्लिन बेचती है और ये टीके खतरनाक हैं और इनका इन महिलाओं को बिना यह बताये उन पर प्रयोग किया जा रहा है कि इसके क्या परिणाम होंगे।

शुरू में इस मामले की सुनवाई दो सदस्यीय पीठ कर रही थी पर बाद में याचिकाकर्ता ने पीठ का ध्यान संसद की स्थाई समिति की एक रिपोर्ट की ओर दिलाया। इस रिपोर्ट में कहा गा था कि एचपीवी टीकों का प्रयोग “मेडिकल एथिक्स का गंभीर उल्लंघन है ...इन लड़कियों और किशोरों के मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है।”

यह कहते हुए कि स्थाई समिति की रिपोर्ट पर भरोसा नहीं किया जा सकता और इसके बाद पीठ ने इस मामले को संवैधानिक पीठ को भेज दिया। पीठ के लिए उसने निम्नलिखित प्रश्नों पर गौर करने को कहा-

इस अदालत के समक्ष अनुच्छेद 32 या 136 के तहत दायर किसी मामले के बारे में क्या अदालत संसदीय समिति की रिपोर्ट पर भरोसा कर सकती है? 

क्या इस तरह की रिपोर्ट का संदर्भ दिया जा सकता है, और अगर हाँ तो क्या संसदीय विशेषाधिकार के कारण इस पर क्या कोई प्रतिबन्ध हो सकता है?

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की राय (खुद के और न्यायमूर्ति खानविलकर के लिए)

(i) कानूनी प्रावधानों की व्याख्या के लिए जब भी जरूरी है, संसदीय स्थाई समिति की मदद ली जा सकती है और इसे ऐतिहासिक तथ्य के रूप में लिया जा सकता है।

(ii) स्थाई समिति की रिपोर्ट से साक्ष्य अधिनियम की धारा 57(4) के तहत न्यायिक सूचना ली जा सकती है और यह अधिनियम की धारा 74 के अधीन कोर्ट में स्वीकार्य है।

(iii) स्थाई समिति की रिपोर्ट को क़ानून की किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।

(iv) अगर तथ्य विवादास्पद है तो याचिकाकर्ता बहुतेरे स्रोतों से इसको इकठ्ठा कर सकता है और हलफनामे के तहत इसे कोर्ट के समक्ष पेश कर सकता है। कोर्ट इस पर अपनी स्वतंत्र निर्णय से फैसला दे सकता है।

(v) स्थाई समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक होती है इसलिए अगर कोई नागरिक इस पर कोई टिप्पणी करता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह संसद के किसी सदस्य पर टिप्पणी करता है।

न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ (अपने और न्यायमूर्ति सिकरी के लिए)

 “(i) स्थाई समिति की रिपोर्ट पर भरोसा नहीं करने का कोई कारण नहीं है।

(ii) रिपोर्ट प्रकाशित हो जाने के बाद इसकी रिपोर्ट का उल्लेख करना विशेषाधिकार का हनन नहीं होगा।

(iii) स्थाई समिति की रिपोर्ट की वैधता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। कार्यवाही के दौरान क्या कहा जाता है उसके लिए सांसदों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

न्यायमूर्ति अशोक भूषण

 (i) अगर कोई रिपोर्ट सार्वजनिक हो गया है तो इस तरह के दस्तावेजों को पेश करने के लिए लोकसभा अध्यक्ष की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है।

(ii) ऐसा नहीं है कि अगर किसी दस्तावेज को साक्ष्य के रूप में पेश करने की अनुमति है तो उसका यह अर्थ नहीं कि उस दस्तावेज में लिखी गई बातें भी सच और सही हैं।

(iii) किसी भी पक्ष को संसदीय समिति की रिपोर्ट पर उंगली उठाने या महाभियोग लगाने की अनुमति नहीं होगी। संसद के बाहर न तो उस पर कोई सवाल उठाया जाएगा और न ही उसके खिलाफ महाभियोग लाया जाएगा यह विशेषाधिकार पक्षकारों पर भी लागू होगा जो इस तरह के दावे अदालत में पेश करता है और जो उसका विरोध करता है।

 (ivसंसदीय समिति की रिपोर्ट की उचित आलोचना का अधिकार अनुच्छेद 19(1) के तहत संरक्षित है। हालांकि अगर निजी हमले किये गए और अगर सदन के किसी सदस्य की मानहानि हुई तो इससे सदन की मानहानि और विशेषाधिकार के उल्लंघन का मामला बनेगा।


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