जहाँ अंग दान करने वाले गरीब लोग अपनी जान की कीमत पर पैसे की लालच में आ जाते हैं वहाँ कोर्ट को उनके संरक्षण के लिए आगे आना चाहिए : दिल्ली हाई कोर्ट [निर्णय पढ़ें]
दिल्ली हाई कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि जहाँ अंग दान करने वाले गरीब लोग पैसे की लालच में आ जाते हैं और अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हैं वहाँ कोर्ट को उनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए।
“जीवन में अवसरों के अभाव ने गरीब लोगों के जीवन में पैसे की अहमियत को बढ़ा दिया है। यह जरूरतों के दर्जे के बारे में मासलोव के सिद्धांत को सहे ठहराता है जिसे अमूमन पिरामिड की तरह बताया जाता है। इस पिरामिड के सबसे नीचे आता है शारीरिक भलाई और आर्थिक सुरक्षा जबकि आत्मविश्लेषण सबसे ऊपर होता है।
अंग दान करनेवाले ऐसे लोग आर्थिक लाभ के आगे झुक जाते हैं। इस स्थिति में कोर्ट को आगे आने की जरूरत होती है ताकि वह उसको बचा सके, यह कहना था न्यायमूर्ति राजीव शकधर का।
कोर्ट ऑथोराईजेशन कमिटी और अपीली अथॉरिटीज के आदेश के खिलाफ अपील की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने यह बात कही। इन समितियों का गठन ट्रांसप्लांटेशन ऑफ़ ह्यूमन ओर्गंस एंड टिश्यूज एक्ट, 1994 के अधीन किया गया है। आलोच्य आदेश के द्वारा इन अथॉरिटीज ने याचिकाकर्ताओं को अंग प्रत्यारोपण की अनुमति देने से इनकार कर दिया था जो कि अंग दान करने वाली और लेने वाली थी।
इस मामले में अंग दान लेने वाली महिला को अंतिम चरण के गुर्दे की बीमारी थी और वह चाहती थी कि उसे उस महिला से मिलने वाले गुर्दे के प्रत्यारोपण की इजाजत दी जाए जिसको वह दशकों से जानता था। पर अधिकारियों ने उसको ऐसा करने की इजाजत नहीं दी और एक दूसरे को इतने लंबे समय से जानने के उनके दावे को नहीं माना। अधिकारियों ने दोनों महिलाओं की उम्र में 13 साल के अंतर की ओर इशारा किया और दोनों के बीच आय के अंतर के बारे में भी बताया। इस आधार पर इन अधिकारियों का कहना था कि हो सकता है कि अंग दान करने वाली महिला पर गुर्दा बेचने के लिए अनुचित दबाव डाला गया हो।
कोर्ट ने इस बात पर गौर किया कि अपीलकर्ता पर यह साबित करने का दायित्व है कि अंग दान करने का प्रस्ताव आपसी स्नेह की वजह से किया गया।
इसके बाद कोर्ट ने अंग दान करने वाली महिला की आर्थिक स्थिति पर गौर किया जो कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से आती हैं और इस मामले से जुड़ी परिस्थितियों के बारे में गौर करने पर जोर दिया ताकि यह निर्णय किया जा सके कि इस मामले में पैसे का कोई लेनदेन हुआ कि नहीं।
कोर्ट ने कहा कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की इस बारे में रिपोर्ट पर गौर करने की जरूरत है। कोर्ट ने कहा, “अगर औथोराईजेशन कमिटी और अपीलेट अथॉरिटी को सिर्फ एसएसपी या डीएम की रिपोर्ट पर ही विश्वास करना है तो वह अपने कर्तव्य में विफल रहेंगे। इस तरह की कोई व्याख्या 1994 अधिनियम की धारा 3 और 9(3) के तहत होगी”।
हालांकि वर्तमान वर्मान मामले में कोर्ट ने कहा कि अपीलेट अथॉरिटी के आदेश में कई तरह की खामियां हैं। इसलिए इस अपील को खारिज करते हुए कोर्ट ने आदेश देते हुए कहा : “अपीलेट ऑथोरिटी को एक साथ मिलकर एक निकाय के रूप में इस मामले पर विचार करना पड़ेगा। इसके बाद अथॉरिटी को इस बारे में कारण बताते हुए आदेश देना होगा और सिर्फ सुझावों से काम नहीं चलेगा। औथोराईजेशन कमिटी के समक्ष पेश किये गए रिकॉर्ड/साक्ष्यों का विश्लेषण किया जाएगा और उस पर विचार विमर्श करना होगा और उसके बाद वह आदेश देगा।”