अपने मातहत को ‘असहनीय’ अतरिक्त काम करने के लिए बाध्य करना आत्महत्या के लिए उकसाने जैसा नहीं : मध्य प्रदेश हाई कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-04-08 15:35 GMT

एक स्कूल के प्रिंसिपल और प्रधानाचार्य को अनुसूचित जाति के एक चपरासी को हत्या के लिए उकसाने के आरोप से मुक्त करते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने कहा कि अगर कोई उच्च अधिकारी अपने मातहत अधिकारी को अतिरिक्त काम करने को कहता है तो उसे आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा नहीं था कि आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के पास और कोई विकल्प नहीं था।

अपनी आत्महत्या से पहले छोड़े गए नोट में उस व्यक्ति ने आरोप लगाया था कि आरोपी ने नियम के विरुद्ध उसको उसकी क्षमता से अधिक काम करने के लिए बाध्य किया और उसको जाति के नाम पर नीचा दिखाने वाली गालियाँ दिया करता था जिसकी वजह से अपमानित होकर उसने आत्महत्या की है।

आरोपी एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा  3(1)(r) और IPC की धारा  306 के तहत अपने विरुद्ध अभियोग लगाए जाने के खिलाफ हाई कोर्ट की शरण में गए।

हाई कोर्ट ने इस मामले में उपलब्ध साक्ष्यों पर गौर किया जिसमें आत्महत्या के पहले लिखा गया नोट और गवाहियों के बयान शामिल थे। मृतक की माँ, भाई और पत्नी ने बताया कि वह अक्सर आरोपियों के व्यवहार को लेकर शिकायतें किया करता था कि ये लोग उससे अतिरिक्त काम कराते हैं जो कि उसकी क्षमता से बाहर की बात होती है। मृतक ने स्कूल परिसर में ही आत्महत्या कर ली थी।

साक्ष्यों का जिक्र करते हुए न्यायमूर्ति जेपी गुप्ता ने कहा कि आरोपी को आत्महत्या के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। कोर्ट ने कहा, “वर्तमान मामले में, मृतक को कथित रूप से गाली देना और उससे अतिरिक्त काम लेने के आरोप की तुलना मृतक को आत्महत्या के लिए बाध्य करने जैसे आरोप से नहीं की जा सकती है।  आत्महत्या के दिन इस तरह की कोई बात नहीं हुई थी जिसे इस घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सके। अगर उच्च अधिकारी अपने मातहत को अतिरिक्त काम करने के लिए बाध्य करते हैं, जो कि उसके लिए असहनीय है, तो इसके खिलाफ उसके पास और दूसरे विकल्प मौजूद थे और यह नहीं कहा जा सकता कि आत्महत्या करने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प मौजूद नहीं था।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि मृतक ने “तनाव के प्रभाव” में आत्महत्या कर ली।

जहाँ तक कि एससी/एसटी अधिनियम के तहत अपराध का मामला है, कोर्ट ने कहा कि गवाहों के बयान सुनी सुनाई बातों पर आधारित हैं और सिर्फ यह कहा गया है कि आरोपी उसको गालियाँ दिया करता था। कोर्ट ने आरोपियों को बरी करते हुए कहा, “आत्महत्या के नोट में जो कहा गया है कि आरोपी उसे जाती के नाम पर गालियाँ दिया करता था, उसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रथम दृष्टया, धारा 306 के तहत किसी भी तरह का अपराध नहीं किया गया है और उस स्थिति में आत्महत्या के नोट को साक्ष्य नहीं माना जा सकता।


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