तीन सदस्यीय पीठ यह निर्णय करेगा कि भूमि अधिग्रहण को चुनौती देने वाली याचिका पर गौर किया जा सकता है या नहीं [आर्डर पढ़े]
सुप्रीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण की याचिका पर सुनवाई हो कि नहीं इस पर विचार की जिम्मेदारी तीन सदस्यीय पीठ को सौंप दी है। यह बड़ी पीठ यह निर्णय करेगा कि भारत संघ बनाम गोपालदास भगवान दास के मामले में भूमि अधिग्रहण की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिका पर हाई कोर्ट सुनवाई कर सकती है या नहीं विशेषकर तब जब इसमें दशकों का विलंब हो गया है।
इस मामले में जमीन के मालिकों ने 2002 में याचिका दायर की और उन लोगों ने 1975 के भूमि अधिग्रहण अधिसूचना को चुनौती दी थी। इस चुनौती का आधार यह था कि अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिसूचना का प्रकाशन नहीं हुआ जो कि आवश्यक था। हाई कोर्ट ने संभवतःकुलसुम आर नाडियाडवाला बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर निर्भर रहते हुए उनकी दलील को सही माना।
कुलसुम आर नाडियाडवाला के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अधिसूचना को निरस्त कर दिया था क्योंकि इसको दशकों बाद चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने कहा कि अधिनियम के तहत जरूरी प्रकियाओं का पालन नहीं करने के बावजूद भूमि का अधिग्रहण किया गया और इसलिए पूरे अधिग्रहण को ही अवैध घोषित कर दिया जाए।
न्यायमूर्ति एके गोएल और न्यायमूर्ति आर बनुमथी की पीठ ने कहा कि 27 साल की देरी होने की वजह से इस भूमि अधिग्रहण को चुनौती नहीं दी जा सकती। पीठ ने तमिलनाडु हाउसिंग बोर्ड, चेन्नई बनाम एम मेइयप्पन एवं अन्य मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि इसके तहत इस चुनौती को इस आधार पर खारिज कर दिया गया क्योंकि याचिकाकर्ता यह नहीं बता पाए कि भूमि अधिग्रहण को चुनौती देने में उनको 16 साल क्यों लगा।
पीठ ने यह भी नोट किया कि तमिलनाडु हाउसिंग बोर्ड मामले में कोर्ट ने मत व्यक्त किया कि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में कोर्ट को राज्य की ओर से मुकदमेबाजी को प्रश्रय नहीं देना चाहिए क्योंकि इससे सार्वजिनक महत्त्व की परियोजनाओं में बाधा उत्पन्न होगी। इस मत का हाल में इंदौर डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम शैलेन्द्र (मृत) एवं अन्य एक मामले में तीन सदस्यीय पीठ ने भी समर्थन किया।
इन सब बातों के आलोक में पीठ ने मामले को तीन-सदस्यीय पीठ को सौंप दिया।