आधार पर 11वें दिन की सुनवाई : गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा, राज्य अपने नागरिकों को भेड़ों का झुंड समझता है
आधार मामले की मंगलवार को ग्यारहवें दिन भी सुनवाई हुई और वरिष्ठ वकीलों ने इसके बारे में अपनी दलीलें पेश कीं।
इस संदर्भ में न्यायमूर्ति केएस पुत्तस्वामी मामले में 2017 में आए फैसले जिसमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया, नालसा बनाम भारत संघ जिसमें ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को अनुच्छेद 15 और 21 के तहत रखा गया, सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ (2016) जिसमें यह कहा गया कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार प्रतिष्ठा का अधिकार भी है, का जिक्र करते हुए वरिष्ठ एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा, “गरिमा की परिकल्पना भी अनुच्छेद 21 का हिस्सा है। और इसलिए आधार असंवैधानिक है।”
सुब्रमण्यम ने कहा, “यह स्थापित स्थिति है कि अगर व्यक्तिगत अधिकारों और राज्य के हितों के बीच टकराव होता है तो व्यक्तिगत अधिकारों को तरजीह दिया जाता है। अनुच्छेद 14 के गैर-भेदभाव के सिद्धांत के अतिरिक्त यह जरूरी है कि राज्य का हर कदम उपयुक्त प्रक्रिया की जांच पर खड़ा उतरे...आधार अधिनियम का लक्ष्य गैर-कानूनी है क्योंकि यह पिछले समय से ही मौलिक अधिकारों के हनन को सही ठहराता है। इसमें ‘डेलिगेशन’ की बात भी अत्यधिक है। किसी लक्ष्य के वैध होने के लिए, यह जरूरी है कि इसके लिए जो साधन अपनाए जाते हैं वे भी वैध हों। अधिनियम 2016 ने जो साधन अपनाया है जो कि बायोमेट्रिक और अल्गोरिथम है, वह अपने आप में असंतोषजनक है।”
“संभावित नुकसान” के सिद्धांत की चर्चा करते हुए यह कहा गया कि इस सिद्धांत पर यह अधिनियम नहीं टिकता है।
आयकर अधिनियम 1961 की धारा 139AA के तहत आधार नंबर को पैन कार्ड से जोड़ने के बारे में 2017 में बिनॉय विस्वममामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उद्धृत करते हुए सुब्रमण्यम ने निजी निकायों द्वारा सामजिक लाभ और सेवाओं में इसको लागू करने के बारे में कही गई बातों की और इशारा किया।
पिछले सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा द्वारा पूछे गए इस प्रश्न के जवाब में कि क्या आधार योजना शरीरधारी व्यक्ति की तुलना में वर्चुअल व्यक्ति को तरजीह देता है, सुब्रमण्यम ने डिजिटल साधनों पर जरूरत से ज्यादा निर्भर रहने की बात का उल्लेख किया और कहा कि ऐसा बिना इस आकलन के हो रहा है कि किसी वास्तविक व्यक्ति को जवाब भी देना होगा और फिर न्याय तक लोगों की पहुँच भी नहीं है।
इसके बाद एके सिकरी ने टिपण्णी की कि सुब्रमण्यम ने जो कहा है कि आधार परियोजना अनुच्छेद 14 में जिस औचित्य की परिकल्पना की गई है उसका उल्लंघन करता है, तो यह उनका अपना मत है।
न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की टिप्पणी का जवाब देते हुए सुब्रमण्यम ने कहा, “आधार योजना लामबंदी पर पाबंदी लगाता है और अतिक्रमण को तरजीह देता है...नागरिक मौत की स्थिति में, वह एक नागरिक को संवैधानिक रूप से मार देता है”।
इस परियोजना के सर्वव्यापी चरित्र की चर्चा करते हुए सुब्रमण्यम ने कहा कि यह एक व्यक्ति को उसके स्व एहसास के लक्ष्य को प्राप्त करने से रोकता है। इसके अलावा, बायोमेट्रिक की संभावनात्मक प्रकृति को देखते हुए उन्होंने कहा कि संविधान के तहत मिले अधिकार और हक़ को भगवान और यूआईडीएआई के जोड़-घटाव के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता जिसको वह नियंत्रित नहीं कर सकता।
उन्होंने कहा, “इस परियोजना में जन्म प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए भी आधार कार्ड प्राप्त करने का प्रावधान है। राज्य अपने नागरिकों को भेड़ों की भीड़ समझता है।”
इसके बाद उन्होंने केएस पुत्तस्वामी मामले में फैसले का उल्लेख किया।
उन्होंने इस मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड के इस फैसले का जिक्र करते हुए कहा, “निजता व्यक्ति का एक ऐसा अधिकार है जिसकी वजह से वह अपने व्यक्तित्व पर अपना नियंत्रण करता है। उसका अस्तित्व इस धारणा में है कि ऐसे कुछ अधिकार हैं जो मानव को स्वभावतः मिला है। प्राकृतिक अधिकार अविच्छेद्य है क्योंकि मानवीय व्यक्तित्व से इसे अलग नहीं किया जा सकता।”
यह कहते हुए कि आधार बहिष्करण को बढ़ावा देता है, उन्होंने बताया, “बहिष्करण का मतलब भेदभाव है जो कि गैर-संवैधानिक है।” उन्होंने आगे कहा कि भारतीय संविधान जोसफ राज की अपवर्जनात्मक कारणों के साथ सामंजस्य पैदा करता है और यह विचार कि किसी व्यक्ति के पास राज्य के खिलाफ अधिकार हो सकता है, यह रोनाल्ड द्वोर्किन के स्पष्ट क़ानून के प्रस्ताव से भी पहले का है।
उन्होंने बेहराम खुर्शेद पेसिकाका बनाम बॉम्बे राज्य (1954) मामले का जिक्र किया जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था : “...ये मौलिक अधिकार संविधान में किसी व्यक्तिगत लाभ मात्र के लिए नहीं डाला गया है जबकि अंततः यह एक व्यक्तिगत अधिकार के रूप में ही लागू होता है। इनको वहाँ एक जननीति के रूप में इसमें शामिल किया गया और इससे छूट का सिद्धांत क़ानून के उन प्रावधानों पर नहीं होता जिन्हें संवैधानिक नीति के लिए बनाया गया है।”
उन्होंने जर्मनी के संघीय संवैधानिक अदालत के माइक्रो जनगणना मामले (1969) का भी जिक्र किया जिसमें कहा गया कि किसी व्यक्ति को कैटेलॉग करना या रजिस्टर में दर्ज करना मानवीय गरिमा के खिलाफ है और ऐसा क्षेत्र होना चाहिए जहाँ किसी भी तरह का अतिक्रमण नहीं हो और व्यक्ति शान्ति से रह सके। जर्मनी के एक अन्य मामले सेन्सस केस (1983) का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि सूचनात्मक स्व-निर्धारण की जड़ मानवीय गरिमा को मिली संवैधानिक गारंटी में है और व्यक्ति को यह स्वतंत्रता देता है कि उनके निजी डाटा को कैसे सार्वजनिक किया जाए और उसका प्रयोग कैसे हो।
मामले की सुनवाई कल भी जारी रहेगी।