किसी अपराध की सूचना पुलिस को ना देने पर सबूत मिटाने का दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]
सुप्रीम कोर्ट ने दिनेश कुमार कालिदास पटेल बनाम गुजरात राज्य में माना है कि अगर कोई व्यक्ति किसी अपराध की सूचना पुलिस को ना दे तो उसे सबूत मिटाने का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
दरअसल निचली अदालत ने भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498 ए और 201 के तहत अपराध के लिए एक व्यक्ति को दोषी ठहराया था। उच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा 498 ए के अपराध से बरी किया लेकिन आईपीसी की धारा 201 के तहत सजा को बनाए रखा।
न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ और न्यायमूर्ति अमिताव रॉय की पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा 201 के तहत दोषी ठहराया था, केवल इस आधार पर कि अभियुक्त ने अप्राकृतिक मौत की पुलिस को सूचना नहीं दी और इसके कारण पोस्टमार्टम नहीं किया जा सका।
"हम डरते हैं, उच्च न्यायालय द्वारा धारा 201 के तहत दोषी ठहराये जाने को न्यायसंगत नहीं माना जा सकता जिसमें सिर्फ ये आधार दिया गया कि पुलिस को सूचित नहीं किया गया और पोस्टमार्टम नहीं किया गया था।"
अदालत ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 201 स्वतंत्र रूप से रखी जा सकती है और सजा भी कायम रखी जा सकती है, अगर अभियोजन पक्ष स्थापित करने में सक्षम है कि एक अपराध किया गया है, तो अपराध के आरोप वाले व्यक्ति को ज्ञान हो या उसका कारण हो कि जो अपराध किया गया, व्यक्ति ने उसके सबूतों को छिपाया है और ये कृत्य कानूनी दंड से अपराधी को बचाने के इरादे से किया गया है।
"सिर्फ संदेह पर्याप्त नहीं है, यह साबित होना चाहिए कि आरोपी को पता था या उसके पास विश्वास करने का एक कारण था कि अपराध किया गया है और फिर भी वह सबूत मिटाए गए ताकि अपराधी को कानून की नजर से बचाया जा सके। अपराधी खुद या कोई अन्य व्यक्ति हो सकता है, " बेंच ने कहा।
हनुमान और अन्य बनाम राजस्थान राज्य के संदर्भ में अदालत ने कहा कि तथ्य केवल यह है कि कथित तौर पर एक अप्राकृतिक मौत के कारण मृत्यु हुई और ये आईपीसी की धारा 201 के तहत आरोप लगाने का पर्याप्त कारण नहीं हो सकता। जब तक अभियोजन पक्ष स्थापित करने में सक्षम ना हो कि अभियुक्त को यह मालूम था कि कोई अपराध किया गया है और उसके कारण उसने सबूतों को मिटाने का अपराध किया है, तब तक उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता।