आधार पर सुनवाई का सातवाँ दिन : लोकतंत्र में सिर्फ एक तरह की पहचान आम लोगों पर आवश्यक रूप से नहीं लादी जानी चाहिए - श्याम दीवान
मंगलवार को आधार मामले की सातवें दिन की सुनवाई पांच जजों की संविधान पीठ के समक्ष शुरू हुई। वरिष्ठ एडवोकेट श्याम दीवान ने याचिकाकर्ता की ओर से पैरवी की। उन्होंने आधार का सत्यापन नहीं हो पाने की वजह से झारखंड में हुई भूख के कारण लोगों की मौत की ओर पीठ का ध्यान खींचा।
दीवान ने कहा, “लाभार्थी“ का पेंशन किसी और व्यक्ति को ट्रांसफर कर दिया गया क्योंकि आधार की लिंकिंग गलत हो गई। नेशनल पेमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया (एनपीसीआई) के मैपर की यही चिंता है। एक अन्य व्यक्ति को उसका राशन नहीं दिया गया।”
न्यायमूर्ति एके सीकरी ने इस पर कहा, “आप क्या कहना चाहते हैं, वह हम समझ गए। कृपया अपनी दलील इस अधिनियम के कानूनी और संवैधानिक पक्ष के बारे में दीजिए।”
न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, “एक अन्य हलफनामे में कहा गया है कि कैसे आधार कुष्ठ रोगियों के लिए बहिष्करण का जरिया बन गया है क्योंकि या तो उनकी उँगलियों के निशान नहीं हैं और अगर हैं तो बहुत ही विकृत हैं।”
उपरोक्त हलफनामे पर प्रकाश डालने के लिए जज का शुक्रिया अदा करते हुए दीवान ने कहा, “यहाँ चिंता बहिष्करण, मर्यादापूर्ण जिंदगी और मौत को लेकर है। लोकतंत्र में सिर्फ एक तरह की पहचान आम लोगों पर आवश्यक रूप से नहीं लादी जानी चाहिए।”
“हमें भारत में इंटरनेट की भेदनीयता की हद के बारे में जानने की दिलचस्पी है”, ऐसा कहना था न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का।
प्वाइंट ऑफ़ सेल (पीओएस) मशीन जो इंटरनेट डिस्कनेक्ट होने पर भी मेमरी के आधार पर काम करता है, का उदाहरण देते हुए दीवान ने कहा, “फर्जी पहचान को ख़त्म करने में आधार का योगदान काफी कम है। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के दूसरे सुरक्षित तरीके हैं।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “इन हलफनामों से पता चलता है कि आधार लिंकेज को जरूरी बनाए जाने के बावजूद लाभार्थी पीडीएस डीलरों की दया पर निर्भर हैं। इस तरह आधार बहिष्करण को बढ़ावा दे रहा है न कि सब्सिडी या अन्य सामाजिक सेवाएं और लाभ देने वालों की निगरानी कर रहा है। यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है”।
वरिष्ठ एडवोकेट कपिल सिबल ने इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर का जिक्र किया जिसमें अकेले दिल्ली में ही बहिष्करण के कई गुणा मामले सामने आए हैं। उन्होंने कहा, “वैश्विक व्यवसाय को आधार की जरूरत है, गरीबों को नहीं”।
दीवान ने कहा, “अगर सत्यापन नहीं होता है या अगर किसी के पास आधार नहीं है, तो वह एक भूत से ज्यादा और कुछ नहीं है। स्थिति बद से बदतर हो गई क्योंकि आधार परियोजना जबरदस्ती थोपी जा रही है। इस तरह की योजना अनुच्छेद 14, 19 और 21 को देखते हुए वैध नहीं हो सकती।
दीवान ने आगे कहा, “इसके अलावा, आधार योजना के बाहर आने की कोई संभावना नहीं है। इसमें पंजीकृत हुए लोगों को इससे बाहर आने की अनुमति देना सूचनात्मक आत्मनिर्णय की दृष्टि से आवश्यक है”।
उन्होंने मेघालय में कुछ लोगों द्वारा इस व्यवस्था से बाहर आने के लिए जो हलफनामा दायर किया है उसका भी जिक्र किया।
दीवान ने एक तकनीक विशेषज्ञ के हलफनामे के एक हिस्से को पढ़ा। इस व्यक्ति ने बहुत सारे पंजीकरण एजेंसियों की जांच करने के बाद इस बात की पुष्टि की कि ये एजेंसियां नागरिकों के संवेदनशील बायोमेट्रिक और जनसांख्यिकीय आंकड़ों को अपने पास रख लेते हैं और यूआईडीएआई को इसकी भनक तक नहीं है - “गुप्त सूचनाएं लॉग्स में इकट्ठे किए जाते हैं और सेव किए जाते हैं जिस तक निजी व्यक्तियों की भी पहुँच होती है...आधार की संरचना ऐसी है कि यूआईडीएआई को इसकी जानकारी तक नहीं है या उसके पास इसको रोकने का कोई साधन नहीं है..अगर इसका ऑडिट भी हुआ तो भी यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि संवेदनशील डाटा को अपने पास रखने की गतिविधि बंद हुई या नहीं...बायोमेट्रिक डाटा को हैक करने या उसको छान लेने के छह तरीके हैं...”। यह राज्य का उत्तरदायित्व है कि वह इन संवेदनशील आंकड़ों के संदर्भ में अपने नागरिकों के साथ विश्वास पर आधारित संबंध बनाए पर वह उनको उनके डाटा से दूर रहने को बाध्य कर रहा है”।
न्यायमूर्ति सीकरी ने पूछा, “क्या यूआईडीएआई ने उस विशेषज्ञ के पत्र का जवाब दिया?” दीवान ने कहा, “जब उसने इस कोर्ट के समक्ष हलफनामा दायर किया उसके बाद यूआईडीएआई ने उसको नोटिस जारी किया। अथॉरिटी इसी तरह काम करती है। इससे पहले भी द ट्रिब्यून के एक पत्रकार के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया गया था क्योंकि उसने आधार प्रोजेक्ट की कमियाँ और उसके अवरोधों की ओर इशारा किया था।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “आधार के तहत इकट्ठा किए जाने वाले डाटा के दुरुपयोग को रोकने का कोई उपाय है जैसा कि किसी के क्रेडिट कार्ड के फर्जी स्वैपिंग को रोकने के लिए?”
दीवान ने उत्तर दिया, “नहीं। यूआईडीएआई इस बात पर जोर डालता है कि नागरिकों के बायोमेट्रिक और जनसांख्यिकीय डाटा एनक्रिप्शन द्वारा सुरक्षित हैं। सीआईडीआर को हैक करना संभव है। यह भी कि, एक बार जब डाटा सेव कर लिया जाता है तो कितनी भी बार उस तक पहुंचा जा सकता है और उसका प्रयोग किया जा सकता है।”
फिर, दीवान ने पीठ का ध्यान सूरत और कानपूर में आधार को लेकर हुए घोटाले की ओर आकृष्ट किया जो कि क्रमशः पीडीएस और फर्जी पंजीकरण से जुड़े हैं।
“ये घटनाएं दो बातें सिद्ध करती हैं – पहला, कि उँगलियों के निशान की नक़ल आसानी से की जा सकती है और दूसरा, यहाँ तक कि आयरिस स्कैन में भी “रिवर्स इंजीनियरिंग” और सॉफ्टवेर में छेड़छाड़ के द्वारा हेरफेर किया जा सकता है”, उन्होंने कहा।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “सत्यापन किए जाने वाले मशीन किस तरह से खरीदे जाते हैं?”
दीवान ने उत्तर दिया, “यूआईडीएआई सिर्फ तकनीकी विवरणों के बारे में बताता है। मशीनों की खरीद निजी निर्माताओं से होती है और वे विदेशी भी हो सकते हैं।”
उन्होंने एक बार फिर आरटीआई द्वारा प्राप्त जानकारी का हवाला दिया जिसके अनुसार 6.32 करोड़ सत्यापन बायोमेट्रिक नक़ल के कारण विफल रहे हैं। उन्होंने कहा, “और अगर यह माना जाए कि बायोमेट्रिक्स पहचान एक संभावना आधारित प्रणाली है क्योंकि अधिक से अधिक लोग इस योजना के अधीन पंजीकृत होते हैं, तो फिर इस समस्या के आगे और बढ़ने की आशंका है”।
आईआईटी दिल्ली में काम कर रहे एक अर्थशास्त्री के हलफनामे का जिक्र करते हुए दीवान ने कहा कि सत्यापन की विफलता के कारण एक आदिवासी स्कूल में एक लड़की की क्लास में उपस्थिति को दर्ज नहीं किया जाता अगर उसकी उँगलियों के निशान नहीं मिलते। उन्होंने आगे कहा, “एक लड़की जो खुद अपनी कक्षा में सशरीर उपस्थित है, उसका कोई महत्त्व नहीं है। इसके अलावा, लोगों की निगरानी उसके स्कूल में रहते ही शुरू हो जाती है और उसके बारे में ये रिकॉर्ड उसकी पूरी जीवनावधि के लिए रख लिए जाएंगे। और ऐसा बिना किसी वैधानिक अनुमति के किया जा रहा है”।
न्यायमूर्ति सीकरी ने कहा, “ऐसा भी हो सकता है कि क्लास में छात्रों की संख्या को बढ़ाचढ़ा कर दिखाने के लिए शिक्षकों की खिंचाई की जाए”।
अपने पूर्व की इस दलील पर कि हर व्यक्ति को अपने ही शरीर पर स्वाभाविक और अविच्छेद्य अधिकार है, दीवान ने ऑक्सफ़ोर्ड हैंडबुक ऑन जूरिसप्रूडेंस में पीटर बेंसन के आलेख का जिक्र किया, “किसी का उसके अपने ही शरीर पर अधिकार संपत्ति के अधिकार से भी बड़ा है...लोकतंत्र में किसी को भी अपने शरीर के ऐसे प्रयोग के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिससे वह स्वेच्छा से सहमत नहीं है...”
और अंत में उन्होंने ट्रांसवाल के क़ानून के खिलाफ महात्मा गाँधी के विरोध का जिक्र किया जिसके तहत उस क्षेत्र में रहने वाले भारतीयों पर खुद को आवश्यक रूप से पंजीकृत कराने के लिए कहा गया था, जिसमें उनकी शारीरिक जांच होती थी और उनको अपने अँगुलियों का निशान देना पड़ता था।