गैरजिम्मेदाराना मुकदमेबाजी के लिए नाराज सुप्रीम कोर्ट ने बेंगलुरु की चैरिटेबल सोसाइटी को अवमानना का दोषी माना [निर्णय पढ़ें]
न्यायमूर्ति अरुण मिश्र और न्यायमूर्ति मोहन एम शांतनगौदार ने बुधवार को यह व्यवस्था दी कि बेंगुलुरु की अनाथ शिशु सेवाश्रम का भूमि विवाद अधिग्रहण के एक मामले में एक ही तरह की राहत के लिए बार-बार कोर्ट के पास आना कोर्ट की अवमानना है। अनाथ शिशु सेवाश्रम एक चैरिटेबल संस्था है और जिस तरह की राहत वह कोर्ट से चाह रही है उसे पिछले 30 सालों से कोर्ट उसे नहीं दे रहा है।
यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने संस्था के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई नहीं की और न ही उस पर भारी जुर्माना लगाया पर पीठ ने कहा, “यह मामला इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण है कि कैसे एक मुकदमेबाज क़ानून की प्रक्रिया और कोर्ट का अनुचित लाभ उठाकर लगभग एक ही तरह की राहत के लिए बार बार कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहा है जबकि वह कई बार कोर्ट उसको वह राहत देने से मना कर चुका है।”
नवंबर 1977 में बैंगलोर विकास प्राधिकरण (बीडीए) ने बीडीए अधिनियम की धारा 17(1) के तहत एक अधिसूचना जारी किया। अधिसूचना में बीडीए ने दो गांवों में भूमि अधिग्रहण का प्रस्ताव किया था। यह अधिग्रहण आवासीय परिसरों के निर्माण के लिए था। दिसंबर 1977 की प्रारम्भिक अधिसूचना और अगस्त 1979 में अंतिम रूप से हुई घोषणा में यह दिखाया गया था कि 25 एकड़ जमीन प्रतिवादी का है। जून 1985 में अतिरिक्त भूमि अधिग्रहण अधिकारी ने 127 एकड़ भूमि के स्वामित्व का फैसला बीडीए के पक्ष में किया जिसमें 25 एकड़ की वह विवादित भूमि भी शामिल थी जबकि प्रतिवादी ने अधिकारी के समक्ष इसके खिलाफ आवेदन किया था। इस फैसले को कर्नाटक सरकार ने 1986 में मान लिया और इसके बाद फैसले की राशि बीडीए द्वारा जमा करा दी गई।
वर्तमान प्रतिवादी ने विवादित 25 एकड़ भूमि पर स्थायी निषेध संबंधी आदेश के लिए दो मामले दायर किए, इनमें से एक जून 1985 में और दूसरा 1989 में दायर किया गया। दोनों ही मामलों में यह कहा गया कि बीडीए ने इस भूमि का अधिग्रहण कर लिया है और इसको अपने कब्जे में ले लिया है। यह भी कहा गया कि इस भूमि का स्वामित्व बीडीए के पास है। प्रतिवादी यहीं नहीं रुका और उसने अगस्त 1991 में कर्नाटक हाई कोर्ट में एक रिट याचिका दायर कर दी और इसमें प्राथमिक अधिसूचना और अंतिम अधिसूचना को चुनौती दी। इस याचिका को विलंब और गफलत के आधार पर खारिज कर दिया गया। इसके बाद डिवीजन बेंच ने नवंबर 1991 में रिट को खारिज कर दिया।
इसके बाद एक और रिट याचिका दाखिल की गई जिसमें सरकार को अपनी अधिसूचना को निरस्त करने और जमीन के प्रतिहस्तांतरण का निर्देश देने का अनुरोध किया गया। इस याचिका को भी दिसंबर 1992 में यह कहते हुए निरस्त कर दिया गया कि सरकार क़ानून के अनुसार इस पर गौर करेगी।
फरवरी 1993 में वर्तमान प्रतिवादी के आग्रह को राज्य सरकार ने नहीं माना। पर वह इसके बाद भी चुप नहीं बैठा और एक रिट याचिका के माध्यम से राज्य सरकार के इस फैसले को चुनौती दी। इस याचिका को भी फरवरी 1996 में खारिज कर दिया गया। बीडीए को विवादित जमीन पर सड़क बनाने से रोकने के लिए दायर एक अन्य याचिका को जुलाई 1996 में निरस्त कर दिया गया। इस बीच, वर्मान प्रतिवादी, जिसने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अभी याचिका दायर की है, ने अपनी पाँचवीं रिट याचिका हाई कोर्ट के समक्ष दायर की। इस याचिका में उसने राज्य सरकार की 1994 के आदेश को लागू कराने की मांग की। इस याचिका में विवादित भूमि पर एक स्कूल चलाने की अनुमति देने की मांग की गई थी जबकि इस आदेश को इसके बाद संशोधित कर दिया गया था। इस रिट याचिका को भी अक्टूबर 1999 में ख़ारिज कर दिया गया।
इसके बाद 1999 में रोक लगाने के लिए तीसरी याचिका दायर की गई और गलती के कारण इसको निरस्त कर दिया गया। अंततः, 2004 में हाई कोर्ट के समक्ष छठी याचिका इस आधार पर दायर की गई कि बीडीए द्वारा आवासन के लिए बनाई गई योजना की अवधि समाप्त हो गई है, उसका ले-आउट प्लान गैरकानूनी है, बीडीए के पास जमीन नहीं है और विभिन्न आवंटियों को आवंटित भूमि गैरकानूनी है। एकल जज ने इस याचिका को भी मार्च 2007 में खारिज कर दिया। इसके बाद रिट अपील का रास्ता अपनाया गया और डिवीज़न बेंच ने 19 अप्रैल 2011 को अपने फैसले में एकल जज के फैसले में हस्तक्षेप किए बिना वर्तमान प्रतिवादी को एक बार फिर दीवानी अदालत में जाने का मौक़ा दिया।
प्रतिवादी की वर्तमान अपील इसी 19 अप्रैल 2011 के फैसले से जुड़ा है। कोर्ट ने कहा, “वर्तमान प्रतिवादी दीवानी अदालत का दरवाजा तीन बार पहले भी खटखटा चुका है और छह बार वह हाई कोर्ट की शरण में जा चुका है। जब भी मामले को वापस लिया गया, प्रतिवादी ने दुबारा दीवानी अदालत में जाने की अनुमति नहीं मांगी। इस तरह प्रतिवादी को उसी राहत के लिए बार बार दीवानी अदालत में जाने की अनुमति नहीं थी। प्रतिवादी रिट याचिका और रिट अपील दाखिल कर कर्नाटक हाई कोर्ट की शरण में गया लेकिन वह फिर भी विफल रहा।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “प्रतिवादी ने कई बार असफल कोशिश की है ताकि वह आवंटियों को परेशान कर सके और मामला अदालत में लंबित रहे...यह स्पष्ट रूप से क़ानून की प्रक्रिया और कोर्ट का दुरूपयोग है।”
सुप्रीम कोर्ट ने दीवानी अदालत के कहने पर वर्तमान प्रतिवादी को राहत प्राप्त करने का अवसर देने के लिए हाई कोर्ट की खंडपीठ के रुख की न केवल इसलिए आलोचना की कि इस तरह का मामला किसी दीवानी अदालत के अधिकार क्षेत्र के बाहर का है बल्कि खासकर इसलिए कि प्रतिवादी बार बार कोर्ट की शरण में आकर बेतुकी दलील की मदद लेता रहा है और खंडपीठ को उसे एक बार फिर उसी तरह की राहत के लिए दुबारा दीवानी अदालत की शरण में जाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी जिसमें वह पहले विफल रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने 19 अप्रैल 2011 के फैसले को निरस्त करते हुए कहा, “खंडपीठ ने इस विवाद को पुनर्जीवित कर गलती की है...”।