आठ राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने की याचिका : सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को अल्पसंख्यक आयोग जाने को कहा
सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर समेत आठ राज्यों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक के तौर पर शामिल कर नई अधिसूचना जारी करने की याचिका पर सुनवाई से इंकार करते हुए याचिकाकर्ता को अल्पसंख्यक आयोग जाने के लिए कहा है। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका को वापस ले लिया है।
शुक्रवार को सुनवाई करते हुए जस्टिस रंजन गोगोई की बेंच ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील अरविंद दातार से कहा कि इस मामले को लेकर अल्पसंख्यक आयोग जाना चाहिए। वही इसके लिए सक्षम अथॉरिटी है। कोर्ट इस मामले में कोई आदेश जारी नहीं कर सकता।
हालांकि दातार की दलील थी कि आयोग सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर काम करता है और वो राज्यों के लिए काम नहीं करता।
ये याचिका वकील अश्विनी उपाध्याय ने दाखिल की थी। याचिका में लक्षद्वीप, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय, जम्मू कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक होने के बावजूद उन्हें अल्पसंख्यक नहीं घोषित किया गया और इन राज्यों में अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ बहुसंख्यक ले रहे हैं और हिंदू इन सुविधाओं से वंचित हैं।
याचिका में ये भी कहा गया था कि केन्द्र सरकार तकनीकी शिक्षा लेने वाले अल्पसंख्यक छात्रों को 20000 रुपये छात्रवृत्ति देती है। जम्मू कश्मीर में मुसलमान 68.30 फीसदी हैं और सरकार 753 में से 717 छात्रवृत्तियां मुस्लिम छात्रों को देती है। वहां किसी भी हिन्दू छात्र को ये लाभ नहीं मिलता। इसके लिए 23-10- 1993 की मुस्लिमों को अल्पसंख्यक वर्ग घोषित करने की अधिसूचना का हवाला दिया जाता है लेकिन हिंदू को अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं दिया गया।
अश्विनी उपाध्याय ने याचिका में कहा था कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 में बना और 17 मई 1993 में जम्मू कश्मीर को छोड़ कर पूरे भारत मे लागू हुआ। केन्द्र सरकार ने कानून की धारा 2(सी) के तहत 23 अक्टूबर 1993 को पांच समुदायों मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित किया। 2014 में इसमें जैन भी शामिल कर दिए गए जबकि आठ राज्यों में अल्पसंख्यक होने के बावजूद हिंदुओं को इसमें शामिल नहीं किया गया।
याचिका में कहा गया था कि 2011 की जनगणना के मुताबिक हिन्दू आठ राज्यों लक्षद्वीप (2.5 फीसदी), मिजोरम (2.7 फीसदी), नगालैंड (8.75 फीसदी ), मेघालय (11.53 फीसदी), जम्मू कश्मीर (28.44 फीसदी), अरुणाचल प्रदेश (29 फीसदी), मणिपुर (31.39 फीसदी), और पंजाब में ( 38.40 फीसदी)अल्पसंख्यक हैं उन्हें अल्पसंख्यक नहीं घोषित किया गया है और इन राज्यों में अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ बहुसंख्यक ले रहे हैं। इन राज्यों मे न तो केन्द्र ने और न ही राज्य सरकारों ने कानून के मुताबिक हिन्दुओँ को अल्पसंख्यक समुदाय अधिसूचित किया है। इस वजह से इन राज्यों में हिन्दू संविधान के अनुच्छेद 25 और 30 के तहत अल्पसंख्यक वर्ग को मिलने वाले लाभ से वंचित हैं। 1993 की समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित करने की अधिसूचना न सिर्फ भेदभाव वाली बल्कि अतार्किक और संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। याचिका में कहा गया था कि मुसलमान लक्षद्वीप (96.20 फीसदी), जम्मू कश्मीर में (68.30 फीसदी) में बहुसंख्यक हैं। जबकि असम में (34.20 फीसदी) के साथ अच्छी खासी संख्या में हैं। इसके अलावा मुसलमान पश्चिम बंगाल में (27.5 फीसदी), केरल में (26.60 फीसदी) उत्तर प्रदेश में (19.30 फीसदी) और बिहार में (18 फीसदी) होने के बावजूद अल्पसंख्यक वर्ग को मिलने वाले लाभ ले रहें हैं जबकि जो समुदाय वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, वो संविधान के तहत मिलने वाले मौलिक अधिकारों से वंचित हैं। याचिका में ये भी कहा गया है कि इसी प्रकार ईसाई मिजोरम, मेघालय और नगालैंड में बहुसंख्यक हैं। अरुणाचल प्रदेश, गोवा, केरल, मणिपुर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल मे भी उनकी संख्या अच्छी खासी है फिर भी वो अल्पसंख्यक माने जाते हैं। इसी तरह सिख पंजाब में बहुसंख्यक हैं और दिल्ली, चंडीगढ व हरियाणा में भी उनकी अच्छी खासी संख्या है लेकिन वो अल्पसंख्यक माने जाते हैं।
याचिका में कहा गया था कि प्रधानमंत्री की धार्मिक व अल्पसंख्यकों के लिए बनाई गई 15 सूत्री योजनाओं को अरूणाचल प्रदेश, गोवा, मिजोरम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मेघालय, असम, मणिपुर, लक्षद्वीप, केरल, पंजाब और तमिलनाडू राज्यों में लागू नहीं किया जा रहा है।