हाई कोर्ट के जजों की तुलना मंत्रियों और अधिकारियों से नहीं हो सकती : इलाहाबाद हाई कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

Update: 2017-11-06 15:33 GMT

हाई कोर्ट के जज संवैधानिक पद पर हैं और उनके संवैधानिक दायित्व अलग हैं। उनकी तुलना मंत्रियों, अधिकारियों व विधायिकाओं से नहीं हो सकती और न ही करने की जरूरत है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक वकील की याचिका खारिज करते हुए उक्त बातें कही। हाई कोर्ट में एडवोकेट ने इसको लेकर जनहित याचिका दाखिल की थी।

इस याचिका में वकील ने कहा था कि हाई कोर्ट के जजों को मंत्रियों के समकक्ष रखा जाए। कोर्ट ने इस पर कहा कि हाई कोर्ट के जजों के अधिकार, दायित्व, विशेषाधिकार और क्रियाकलाप बिल्कुल अलग हैं और इसकी तुलना मंत्रियों से नहीं की जा सकती।

एडवोकेट अशोक पांडेय ने याचिका में कहा कि मंत्रियों के वेतन एवं भत्ता अधिनियम 1952 और उत्तर प्रदेश मंत्री (वेतन, भत्ता एवं अन्य प्रावधान अधिनियम) 1981 को गैर संवैधानिक घोषित किया जाए और निर्देश जारी किया जाए कि मंत्री और हाई कोर्ट के जजों को एक ही स्तर पर रखा जाए।

सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार के वकील ने दलील दी कि वेतन की दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट के जज, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और जज को मंत्रिमंडलीय सचिव और भारत सरकार के सचिवों के बराबर रखा गया है।

हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति वीरेंद्र कुमार की बेंच ने ऑल इंडिया जज एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि सेक्रेटेरियल स्टाफ की तुलना जजों से नहीं हो सकती। जज संवैधानिक पद पर संवैधानिक दायित्व का निर्वहन करते हैं। सेक्रेटेरियल स्टाफ की तुलना हाई कोर्ट के रजिस्ट्री और स्टाफ से हो सकती है लेकिन जजों से उनकी तुलना नहीं हो सकती। और यह तुलना किसी भी उद्देश्य के लिए नहीं हो सकती।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट के जज संवैधानिक पद का दायित्व निभाते हैं। उनके विशेषाधिकार और उनकी शक्तियां अलग हैं और उनकी तुलना मंत्रियों से हो नहीं सकती। ऐसी तुलना का कोई कारण ही नहीं है। हाई कोर्ट ने याचिका के उस गुहार को भी खारिज कर दिया जिसमें मंत्रियों, राज्यमंत्रियों और उपमंत्रियों को बराबर मानने के लिए कहा गया था।


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