रेप पर मौजूदा कानून लैंगिक भेदभाव वाले, दिल्ली हाईकोर्ट ने याचिका पर केंद्र से मांगा जवाब [याचिका पढ़े]

Update: 2017-09-28 11:36 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता यानी IPC की धारा 375 और 376 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। याचिका में दोनों धाराओं को लैंगिक भेदभाव वाला बताते हुए निष्पक्ष कानूनी प्रावधान लागू करने की मांग की गई है।

संजीव कुमार द्वारा दाखिल इस याचिका में हाल ही में भोंडसी के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में 42 साल के व्यक्ति द्वारा छात्र के साथ दुष्कर्म के असफल प्रयास में हत्या करने के मामले का संदर्भ दिया है। अन्य कई उदाहरण देते हुए याचिकाकर्ता ने कोर्ट में कहा है कि 63 देशों ने रेप के कानून को लैंगिक तौर पर निष्पक्ष भाषा में लिखा है।

इन देशों के डेटा और स्टडी के आधार पर याचिकाकर्ता ने कहा है कि इंग्लैंड, अमेरिका, नेपाल और आस्ट्रेलिया में विभिन्न पक्षों द्वारा बहस और केसों को देखते हुए प्रगतिशील देशों ने महिला द्वारा पुरुष के रेप संबंधी लैंगिक निष्पक्ष कानून बनाए हैं। डेटा और शोध से ये साफ है कि पुरुषों के साथ महिला द्वारा रेप एक सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता और ये कोई कल्पना की उपज नहीं है।

पुरुष रेप को विसंगति या सनकपूर्ण घटना कहा जाता रहा है लेकिन पुरुषों के लिए लैंगिक निष्पक्ष कानून ना होने से सिर्फ सामान्य विचार से पुरुषों को न्याय देने से वंचित रख रहे हैं।

याचिकाकर्ता कुमार ने कहा है कि पितृसता की वजह से पुरुष के साथ रेप होने की वजह से सब चुप्पी साधे रहते हैं। अगर कोई पुरुष ये कहे कि महिला ने उसके साथ रेप किया है तो उसे सही पुरुष नहीं माना जाता क्योंकि पितृसत्तात्मक  स्टीरियोटाइप सोच सामने आ जाती है कि पुरुष महिला से ज्यादा शक्तिशाली होता है।

इसी पितृसत्तात्मक सोच और पुरुष प्रभुत्व समाज की वजह से पुरुष रेप के मामले में रिपोर्ट नहीं करते। फोरमैन (1982) ने पाया है कि रेप का शिकार होने वाले 90-95 फीसदी  पुरुष इसकी रिपोर्ट नहीं करते। इसलिए पुरुष भी महिलाओं की तरह रेप की रिपोर्ट करने से डरते हैं। उनके पुरुषत्व पर संदेह किया जाता है। महिलाओं द्वारा रेप किए जाने पर उनकी हंसी उडाई जाती है ओप समाज में प्रताडित किया जाता है। इसमें उसकी कमी और गलती मानी जाती है।

याचिकाकर्ता में कहा गया है कि निजता के अधिकार पर हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में सहमति को 38 बार लिखा है। निजता के फैसले में अब सहमति और शारीरिक अखंडता को मौलिक अधिकारों के दायरे में रखा गया है। निजता के मौलिक अधिकार होने से CrPC/IPC के कई सेक्शन ( या उनके कुथ प्रावधान) की आकृति और वैधानिकता बदल गई है। इसलिए इन्हें शून्य अवैध और अंसवैधानिक घोषित किया जाए।


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