'व्यवस्थागत विफलता': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुजारा भत्ता संबंधी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के निर्देशों की अनदेखी पर न्यायिक अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांगा

Shahadat

21 Oct 2025 10:16 PM IST

  • व्यवस्थागत विफलता: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुजारा भत्ता संबंधी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के निर्देशों की अनदेखी पर न्यायिक अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांगा

    हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक कड़े आदेश में घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत गुजारा भत्ता संबंधी मामलों में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बाध्यकारी निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित करने में अधीनस्थ कोर्ट द्वारा "व्यवस्थागत विफलता" और "उदासीनता की स्थिति" पर गंभीर चिंता व्यक्त की।

    जस्टिस विनोद दिवाकर की पीठ ने वाराणसी में न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में लंबित अधिनियम, 2005 की धारा 12 के तहत एक शिकायत मामले में कार्यवाही में तेजी लाने के निर्देश देने की मांग वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की।

    याचिकाकर्ता-पत्नी ने 6 नवंबर, 2018 को घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराई थी। प्रतिवादी-पति को 28 मई, 2019 को नोटिस दिया गया। चूंकि वह अदालत में पेश नहीं हुआ, इसलिए 23 सितंबर, 2019 को एकपक्षीय कार्यवाही शुरू की गई।

    इसके बाद पति पहली बार 29 जनवरी, 2021 को ही पेश हुआ। इसके बाद 7 सितंबर, 2021 को निचली अदालत ने पत्नी के पक्ष में ₹15,000 प्रति माह का अंतरिम भरण-पोषण भत्ता प्रदान किया।

    इस आदेश से व्यथित होकर पति ने इसे पुनर्विचार न्यायालय में चुनौती दी, जिसने भरण-पोषण राशि को घटाकर ₹10,000 प्रति माह कर दिया। इसके बाद याचिकाकर्ता-पत्नी ने हाईकोर्ट में एक आपराधिक पुनर्विचार याचिका दायर की।

    हाईकोर्ट ने इस बात को ध्यान में रखते हुए कि प्रतिवादी पति भारतीय रेलवे में सेक्शन इंजीनियर के पद पर कार्यरत है और लगभग ₹1,10,000 प्रति माह कमाता है, अंतरिम भरण-पोषण राशि को बहाल करके ₹15,000 प्रति माह कर दिया।

    हालांकि, पति द्वारा भरण-पोषण के आदेशों का पालन न किए जाने के कारण पत्नी को फिर से हाईकोर्ट का रुख करना पड़ा।

    याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए एडवोकेट गोपाल खरे ने हाईकोर्ट में दलील दी कि 2018 से मामला लंबित होने के बावजूद, पति द्वारा आज तक एक पैसा भी नहीं दिया गया।

    याचिकाकर्ता द्वारा यह दलील दी गई कि वह बिना किसी आर्थिक सहायता के अभाव में जीवन यापन कर रही है, जबकि उसके पति का वेतन अच्छा-खासा है।

    पत्नी ने आगे दावा किया कि उसके पति द्वारा कोर्ट के आदेश का पालन न करने के कारण उस पर ₹4,55,000/- का बकाया जमा हो गया। यहां तक कि न्यायालय भी भुगतान को लागू कराने या बाध्यकारी न्यायिक निर्देशों का पालन करने में विफल रहे हैं।

    मामले के अभिलेखों का अवलोकन करने के बाद जस्टिस दिवाकर ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि न तो ट्रायल कोर्ट और न ही पुनर्विचार अदालत ने प्रतिवादी-पति को संपत्ति और देनदारियों का हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने रजनीश बनाम नेहा 2021 और हाईकोर्ट ने पारुल त्यागी बनाम गौरव त्यागी 2023 में स्पष्ट निर्देश दिए।

    पीठ ने कहा,

    "इस तरह की निष्क्रियता संवैधानिक कोर्ट के बाध्यकारी उदाहरणों की अवहेलना और उनका पालन न करने के समान है, जो संबंधित न्यायालयों की उदासीनता को दर्शाता है।"

    जस्टिस दिवाकर ने आगे कहा कि राजेश बाबू सक्सेना बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2024 में हाईकोर्ट द्वारा जारी एक पूर्व निर्देश, जिसमें पति के वेतन से भरण-पोषण की वसूली अनिवार्य थी, का भी पालन नहीं किया गया।

    कोर्ट ने टिप्पणी की,

    "यह आचरण एक प्रणालीगत विफलता को दर्शाता है और वादियों का न्यायिक प्रणाली में विश्वास कम करता है।"

    सिंगल जज ने आगे कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अधीनस्थ न्यायालयों को भरण-पोषण और घरेलू हिंसा के मामलों में "संवेदनशीलता, जागरूकता और ज़िम्मेदारी" के साथ कार्य करने के बार-बार दिए गए निर्देशों का पालन नहीं किया जा रहा है।

    इस पृष्ठभूमि में हाईकोर्ट ने न्यायिक मजिस्ट्रेट, कोर्ट नंबर 3, वाराणसी को निर्देश दिया कि वे उन कानूनी बाधाओं का उल्लेख करते हुए स्पष्टीकरण प्रस्तुत करें, जिनके कारण संवैधानिक न्यायालयों द्वारा पक्षकारों से संपत्ति और देनदारियों के हलफनामे प्राप्त करने के निर्देशों का पालन नहीं हो पा रहा है।

    इसी प्रकार, पुनर्विचार न्यायालय को भी निर्देश दिया गया कि वह अभिलेख में उपलब्ध उस सामग्री का उल्लेख करते हुए स्पष्टीकरण प्रस्तुत करे, जिसके आधार पर उसने भरण-पोषण राशि ₹15,000 से घटाकर ₹10,000 प्रति माह कर दी थी।

    खंडपीठ ने आगाह किया कि 'गोलमोल' जवाब देने पर प्रशासनिक कार्रवाई हो सकती है।

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