उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता को चुनौती देने वाली याचिका: हाईकोर्ट ने राज्य सरकार, UOI को नोटिस जारी किए

Amir Ahmad

12 Feb 2025 10:31 AM

  • उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता को चुनौती देने वाली याचिका: हाईकोर्ट ने राज्य सरकार, UOI को नोटिस जारी किए

    उत्तराखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में लागू किए गए समान नागरिक संहिता (UCC) उत्तराखंड 2024 को चुनौती देने वाली याचिका में राज्य सरकार और भारत संघ को नोटिस जारी किए।

    चीफ जस्टिस जी. नरेंद्र और जस्टिस आशीष नैथानी की खंडपीठ ने प्रतिवादियों से 6 सप्ताह में जवाब मांगा।

    अलमासुद्दीन सिद्दीकी और इकराम द्वारा संहिता को चुनौती देने वाली जनहित याचिका में नोटिस जारी किए गए। उन्होंने दावा किया कि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 25 के तहत मुस्लिम समुदाय और अन्य नागरिकों के मौलिक अधिकारों और मुस्लिम समुदाय की आवश्यक धार्मिक प्रथाओं का उल्लंघन करता है।

    खंडपीठ ने कई अलग-अलग आधारों पर UCC को चुनौती देने वाली दो अन्य याचिकाओं को इस याचिका के साथ संलग्न किया और मामले की सुनवाई 6 सप्ताह बाद तय की।

    भीमताल निवासी और पूर्व स्टूडेंट नेता सुरेश सिंह नेगी की जनहित याचिका में समान नागरिक संहिता (UCC) के कई प्रावधानों को चुनौती दी गई। खास तौर पर लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े प्रावधानों को, जबकि आरुषि गुप्ता की अन्य जनहित याचिका में विवाह, तलाक और लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े प्रावधानों को चुनौती दी गई, जिसमें तर्क दिया गया कि ये नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।

    गौरतलब है कि 27 जनवरी को उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू की उत्तराखंड विधानसभा द्वारा उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक, 2024 पारित किए जाने के लगभग एक साल बाद। यह UCC लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया।

    याचिकाकर्ताओं (अलमासुद्दीन सिद्दीकी और इकराम) की ओर से पेश हुए एडवोकेट कार्तिकेय हरि गुप्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष दलील दी कि कुरान और उसकी आयतों में निर्धारित कानून हर मुसलमान के लिए अनिवार्य धार्मिक प्रथा है। UCC 2024, जो उपरोक्त धार्मिक मामलों के लिए प्रक्रिया निर्धारित करता है, कुरान की आयतों के विपरीत है।

    याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि 2024 संहिता भारत के संविधान के अनुच्छेद 245 का उल्लंघन करती है, क्योंकि यह राज्य कानून है, जिसका क्षेत्राधिकार अतिरिक्त है।

    इसके अलावा उन्होंने लिव-इन रिलेशनशिप के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन और इसके अभाव में दंडनीय सजा को भी चुनौती दी है। उनका तर्क है कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत निजता के अधिकार का उल्लंघन है।

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