नियुक्ति विज्ञापन निरस्त हो जाए तो नियुक्त उम्मीदवारों की सुनवाई के बिना पूरी प्रक्रिया निरस्त की जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

11 Feb 2025 4:30 AM

  • नियुक्ति विज्ञापन निरस्त हो जाए तो नियुक्त उम्मीदवारों की सुनवाई के बिना पूरी प्रक्रिया निरस्त की जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड सरकार द्वारा आयोजित चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की 2010 की भर्ती प्रक्रिया को अवैध और असंवैधानिक घोषित किया, जिससे पूरी प्रक्रिया निरस्त हो गई। कोर्ट ने राज्य सरकार को छह महीने की अवधि के भीतर उक्त पदों के लिए नए विज्ञापन जारी करने का निर्देश दिया।

    पदों की संख्या का उल्लेख न करने, लागू आरक्षण को निर्दिष्ट न करने और इंटरव्यू राउंड (मूल रूप से विज्ञापन में उल्लेख नहीं) को शामिल करने के बीच में खेल के नियम को बदलने जैसे कारकों का हवाला देते हुए कोर्ट ने पाया कि पूरी भर्ती प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के उल्लंघन में की गई।

    जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने झारखंड हाईकोर्ट द्वारा कई उम्मीदवारों को उनकी बात सुनने का अवसर दिए बिना बर्खास्त करने का फैसला बरकरार रखा। न्यायालय ने कहा कि असंवैधानिक प्रक्रिया के माध्यम से की गई नियुक्तियों को संरक्षित नहीं किया जा सकता, भले ही उम्मीदवारों ने वर्षों तक काम किया हो और उनकी नियुक्ति रद्द करने से पहले उनकी बात नहीं सुनी गई हो।

    न्यायालय ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रघुवर पाल सिंह (2018) 15 एससीसी 463 पर भरोसा करते हुए कहा,

    "जब उम्मीदवारों की नियुक्ति कानून में अमान्य है, जिससे वे पदों पर रहने के लिए अयोग्य हो जाते हैं तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की आवश्यकता नहीं थी, खासकर जब यह निरर्थकता से कम नहीं होगा।"

    यदि कानून की दृष्टि में विषयगत नियुक्तियां आरंभ से ही अमान्य थीं तो एकल न्यायाधीश के लिए यह आवश्यक नहीं था कि वह ऐसे निर्णय से प्रभावित होने वाले सभी पक्षों, यानी अपीलकर्ता-कर्मचारी सहित विषयगत पदों पर पहले से नियुक्त उम्मीदवारों को सुनने के बाद आदेश पारित करे।

    यदि नियुक्ति प्रक्रिया अमान्य है तो नियुक्तियों को रद्द किया जा सकता है, भले ही व्यक्ति सेवा में शामिल हो गया हो।

    कोर्ट ने कहा,

    “इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि एक बार नियुक्ति प्रक्रिया को कानून में अमान्य घोषित कर दिया जाता है तो ऐसी नियुक्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए की गई हर कार्रवाई भी अवैध है। इसलिए संवैधानिक न्यायालयों को ऐसी नियुक्तियों को पूरी तरह से और शुरू से ही रद्द करने का अधिकार है। न्यायालय की यह शक्ति ऐसी स्थिति में भी कम नहीं होती है, जहां नियुक्ति की पेशकश करने वाले या सेवा में शामिल होने वाले लोगों में तीसरे पक्ष के अधिकार का निर्माण किया गया हो।”

    न्यायालय ने कहा कि पिछले दरवाजे की प्रक्रिया का लाभार्थी कानून के अनुसार उचित उपचार का दावा नहीं कर सकता है, जब वह प्राप्त करने वाले छोर पर आता है।

    “वर्तमान मामले में अपीलकर्ता-कर्मचारी, जिसे 29 जुलाई, 2010 के विज्ञापन के तहत नियुक्त किया गया, उसको इस पद पर कोई अधिकार नहीं है, जब यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि विज्ञापन स्वयं अमान्य है और अवैध और असंवैधानिक घोषित किया गया। ऐसे पदों पर बने रहने का उम्मीदवारों का अधिकार विज्ञापन की वैधता और उसके अनुसरण में आयोजित भर्ती प्रक्रिया पर निर्भर है।

    सरकार सार्वजनिक नियुक्तियों में मनमानी नहीं कर सकती

    कोर्ट ने आगे कहा,

    “इस मोड़ पर विदा लेने से पहले हम यह ध्यान रखना उचित समझते हैं कि सार्वजनिक रोजगार भारत के संविधान द्वारा राज्य को सौंपा गया कर्तव्य है। इसलिए यह अनिवार्य हो जाता है कि सार्वजनिक रोजगार से संबंधित मामले में राज्य द्वारा अनुच्छेद 14 और 16 की कठोरताओं की अनदेखी न की जाए। सार्वजनिक रोजगार में मनमानी समानता के मौलिक अधिकार की जड़ तक जाती है। जबकि कोई भी व्यक्ति नियुक्ति के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकता है, इसका मतलब यह नहीं है कि राज्य को मनमाने या मनमानी तरीके से काम करने की अनुमति दी जा सकती है। राज्य आम जनता के साथ-साथ भारत के संविधान के प्रति भी जवाबदेह है, जो प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान और निष्पक्ष व्यवहार की गारंटी देता है। इस प्रकार, सार्वजनिक रोजगार प्रक्रिया हमेशा निष्पक्ष, पारदर्शी और भारत के संविधान की सीमाओं के भीतर होनी चाहिए। प्रत्येक नागरिक को निष्पक्ष व्यवहार का मौलिक अधिकार है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का एक अंग है। इस गारंटी का उल्लंघन न्यायिक जांच के साथ-साथ आलोचना के लिए भी उत्तरदायी है।"

    केस टाइटल: अमृत यादव बनाम झारखंड राज्य और अन्य।

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