सुप्रीम कोर्ट ने एमपी सिविल जज पद के लिए 3 साल की लॉ प्रैक्टिस या एलएलबी में 70% अंकों की आवश्यकता में हस्तक्षेप करने से इनकार किया
Shahadat
26 April 2024 4:41 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस नियम को बरकरार रखने के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार किया, जिसमें राज्य में एडमिशन स्तर की न्यायिक सेवा के उम्मीदवारों के लिए कम से कम तीन साल की प्रैक्टिस या कानून स्नातक में 70 प्रतिशत अंक की पात्रता निर्धारित की गई।
प्रस्तुतियां सुनने के बाद जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने कहा कि हाईकोर्ट के दृष्टिकोण में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं है। इस प्रकार, लागू आदेश के खिलाफ दायर विशेष अनुमति याचिका खारिज की।
वर्ष 2023 में मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा (भर्ती एवं सेवा की शर्तें) नियम, 1994 के नियम 7 में संशोधन किया गया। इस संशोधन के माध्यम से सिविल जज, जूनियर डिवीजन (प्रवेश स्तर) के पद के लिए अतिरिक्त पात्रता योग्यता शुरू की गई। संशोधन के संदर्भ में वे सभी जिन्होंने आवेदन जमा करने के लिए निर्धारित अंतिम तिथि तक कम से कम तीन साल तक वकील के रूप में लगातार प्रैक्टिस की, आवेदन करने के पात्र थे। इसके अलावा, वैकल्पिक रूप से शानदार अकादमिक करियर वाला उत्कृष्ट लॉ ग्रेजुएट, जिसने पहले प्रयास में कुल मिलाकर कम से कम 70% अंक हासिल करके सभी परीक्षाएं उत्तीर्ण की हों, आवेदन करने के लिए पात्र था।
हाईकोर्ट के समक्ष वर्तमान याचिकाकर्ता ने इस संशोधन रद्द करने की मांग की और तर्क दिया कि यह अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) सहित संविधान के कई अनुच्छेदों के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
हालांकि, हाईकोर्ट का विचार है कि संशोधन का उद्देश्य "न्याय का गुणात्मक वितरण" है और "उत्कृष्टता को हमेशा सामान्यता पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए।" ऐसा कहते हुए न्यायालय ने यह भी कहा कि संशोधन अवसर से इनकार नहीं करता है और उम्मीदवारों के लिए विकल्प दोहरे हैं।
न्यायालय ने यह रिकार्ड किया:
“यह सब निर्णयों की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए जाता है, जो बदले में बड़े पैमाने पर वादियों को प्रभावित करता है। हमारे विचार में इन परिणामों को प्राप्त करने के लिए हाईकोर्ट का उद्देश्य किसी भी तरह के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। जज बनना किसी उम्मीदवार का सिर्फ सपना नहीं हो सकता। न्यायपालिका में शामिल होने के लिए व्यक्ति के पास उच्चतम मानक होने चाहिए।”
हाईकोर्ट ने ऐसे मामलों में वादकारियों के हितों को भी तौला। हाईकोर्ट ने कहा कि वादकारियों का हित व्यक्तिगत याचिकाकर्ता के हित से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं की दलीलों को स्वीकार करने से मौजूदा घटिया मानक ही कायम रहेंगे, जो दशकों से कायम हैं। दशकों तक न्यूनतम योग्यता ही पर्याप्त है। गुणवत्ता में वृद्धि सुनिश्चित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
हाईकोर्ट ने कहा,
यह पहली बार है कि हाईकोर्ट ने ऐसा करने का प्रयास किया।
इन टिप्पणियों के आलोक में न्यायालय ने विवादित संशोधन को असंवैधानिक या संविधान के अधिकार क्षेत्र से बाहर घोषित करने से इनकार किया।
केस टाइटल: गरिमा खरे बनाम मध्य प्रदेश का उच्च न्यायालय, डायरी नंबर- 18316 - 2024