संपत्ति पर कब्जा न होने और स्वामित्व विवादित होने पर केवल निषेधाज्ञा का मुकदमा पर्याप्त नहीं: सुप्रीम कोर्ट
Praveen Mishra
3 Nov 2025 4:57 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि जब विवादित संपत्ति का स्वामित्व (title) ही विवादित हो और कब्जा (possession) प्रतिवादी के पास हो, तब केवल “शांतिपूर्ण उपयोग में हस्तक्षेप न करने के लिए निषेधाज्ञा (injunction)” का मुकदमा कानूनी रूप से बनाए नहीं रखा जा सकता, जब तक कि उसके साथ स्वामित्व की घोषणा (declaration of title) और कब्जा वापस पाने (recovery of possession) की मांग भी न की जाए।
दूसरे शब्दों में, जब वादी (plaintiff) के पास संपत्ति का कब्जा नहीं है और प्रतिवादी (defendant) स्वामित्व का दावा करता है, तब केवल निषेधाज्ञा का मुकदमा दायर करने की बजाय वादी को घोषणा संबंधी वाद (declaratory suit) दायर करना चाहिए।
जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने यह मामला सुना, जिसमें वादी ने प्रतिवादी को संपत्ति बेचने या उसके शांतिपूर्ण उपयोग में हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए निषेधाज्ञा मांगी थी। वादी ने यह दावा एक विवादित वसीयत (Will) के आधार पर किया था, जबकि वह स्वयं संपत्ति के कब्जे में नहीं थी और मुकदमा दायर करते समय स्वामित्व की घोषणा की मांग भी नहीं की थी।
संक्षेप में, विवाद तीन भाई-बहनों — डी. राजम्मल (वादी), मुनुस्वामी (अब मृत, जिनके कानूनी उत्तराधिकारी अपीलकर्ता-प्रतिवादी हैं) और गोविंदराजन — के बीच एक भूमि को लेकर था। राजम्मल ने दावा किया कि उनके पिता रंगास्वामी नायडू ने वसीयत के माध्यम से संपत्ति को उसके और गोविंदराजन के बीच समान हिस्सों में बाँट दिया था।
वहीं, प्रतिवादी भाई मुनुस्वामी का कहना था कि यह संपत्ति पिता की स्वयं अर्जित नहीं बल्कि वंशानुगत पारिवारिक संपत्ति (ancestral joint family property) थी, और वह 1983 के पारिवारिक समझौते (family arrangement) के तहत सह-स्वामी के रूप में कब्जे में है।
ट्रायल कोर्ट ने वादी के पक्ष में फैसला सुनाते हुए वसीयत को सही माना और दो निषेधाज्ञाएँ जारी कीं —
(1) संपत्ति के हस्तांतरण (alienation) पर रोक, और
(2) वादी के कथित कब्जे में हस्तक्षेप से रोक।
पहली अपीलीय अदालत (First Appellate Court) ने ट्रायल कोर्ट का फैसला पलट दिया, यह मानते हुए कि संपत्ति वंशानुगत है और वसीयत अमान्य है।
हाईकोर्ट ने दूसरी अपील (Second Appeal) में फिर से ट्रायल कोर्ट का फैसला बहाल कर दिया और कहा कि चूंकि वसीयत वैध है, इसलिए स्वामित्व वादी के पास है, और “स्वामित्व के साथ कब्जा भी माना जाएगा (possession follows title)।”
इस फैसले से असंतुष्ट होकर प्रतिवादी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट में, अपीलकर्ता-प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वादी ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि संपत्ति का कब्जा प्रतिवादी के पास है, इसलिए केवल निषेधाज्ञा का मुकदमा बिना स्वामित्व की घोषणा और कब्जा वापसी की मांग के बनाए नहीं रखा जा सकता।
जस्टिस विनोद चंद्रन द्वारा लिखित निर्णय में अदालत ने इस तर्क को सही माना और कहा कि जब प्रतिवादी भी स्वयं को संपत्ति का सह-स्वामी बताता है, तो सिर्फ निषेधाज्ञा की मांग वाला मुकदमा टिकाऊ नहीं हो सकता।
अदालत ने कहा —
“यह भी महत्वपूर्ण है कि वादी के पास कब्जा नहीं था, फिर भी उसने कब्जा वापस पाने की मांग नहीं की। जब वह वसीयत के आधार पर स्वामित्व का दावा कर रही थी, तो उसे स्वामित्व की घोषणा की मांग करनी चाहिए थी, विशेषकर जब प्रतिवादी का दावा था कि वह सह-स्वामी के रूप में संपत्ति में आया और उस पर स्थायी रूप से कब्जा कर चुका है।”
अदालत ने आगे कहा कि हाईकोर्ट को पहली अपीलीय अदालत के फैसले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था, क्योंकि वादी ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया था कि संपत्ति का कब्जा प्रतिवादी के पास है। ऐसे में वह बिना स्वामित्व की घोषणा और कब्जा वापसी की मांग किए निषेधाज्ञा प्राप्त नहीं कर सकती थी।
अदालत ने टिप्पणी की —
“भले ही स्वामित्व सिद्ध हो जाए, फिर भी वादी को कब्जा वापसी की मांग करनी चाहिए थी। खराब तरीके से तैयार की गई याचिका और वादी द्वारा गवाह के रूप में दिए गए स्पष्ट बयानों को देखते हुए, ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट को वादी के पक्ष में निषेधाज्ञा नहीं देनी चाहिए थी, विशेषकर तब जब वादी ने खुद स्वीकार किया कि संपत्ति का कब्जा प्रतिवादी के पास है।”

