जब किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल जुड़ा हो तो एक दिन की देरी भी मायने रखती है: सुप्रीम कोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका लंबित रखने के लिए हाईकोर्ट की आलोचना की

Shahadat

18 Jan 2024 5:15 AM GMT

  • जब किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल जुड़ा हो तो एक दिन की देरी भी मायने रखती है: सुप्रीम कोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका लंबित रखने के लिए हाईकोर्ट की आलोचना की

    सुप्रीम कोर्ट ने अपने माता-पिता द्वारा कस्टडी में ली गई 25 वर्षीय महिला को रिहा करते हुए मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा दिखाए गए संवेदनहीन रवैये पर नाराजगी व्यक्त की। महिला के यह कहने के बावजूद कि वह दुबई लौटना चाहती है, जहां से उसके माता-पिता उसे ले गए हैं, हाईकोर्ट ने उसे तत्काल प्रभाव से मुक्त नहीं किया और मामले को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया।

    जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने कहा कि मामले को हाईकोर्ट ने 14 मौकों पर स्थगित किया और उसके बाद 2025 तक के लिए स्थगित कर दिया, जो अदालत की ओर से "संवेदनशीलता की पूरी कमी" को दर्शाता है, वह भी बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में।

    अदालत ने कहा,

    "जब किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल जुड़ा हो तो एक दिन की देरी भी मायने रखती है।"

    मामला याचिकाकर्ता/के की शिकायत से संबंधित हैकि उसकी साथी 'एम', जिसके साथ वह दुबई में पढ़ रहा था, उसको उसके माता-पिता जबरन ले गए और उनके रिश्ते के बारे में जानने के बाद बेंगलुरु में अवैध रूप से कस्टडी में लिया गया।

    क द्वारा कर्नाटक हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई, जिसमें दावा किया गया कि दुबई में करियर बनाने से रोकने के लिए एम के डिवाइस, पासपोर्ट, सामान और अन्य सामान उससे छीन लिए गए। अदालत द्वारा नोटिस जारी करने और स्टेटस रिपोर्ट मांगने पर एम का बयान दर्ज किया गया, जिसमें उसने स्पष्ट रूप से कहा कि उसे उसके दादा की खराब सेहत के बहाने दुबई से जबरदस्ती ले जाया गया और पहले तय विवाह करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

    इसे आवश्यक मानते हुए हाईकोर्ट ने इसके बाद बंदी और उसके परिवार के सदस्यों के साथ चैंबर सुनवाई की। इसके बाद मामले को बार-बार स्थगित किया गया। अंततः सूचीबद्ध करने की अस्थायी तारीख 10 अप्रैल, 2025 दिखाई गई।

    यह देखते हुए कि बंदी प्रत्यक्षीकरण मामला होने के बावजूद हाईकोर्ट "कछुआ गति" से आगे बढ़ रहा है, सुप्रीम कोर्ट ने 3 जनवरी, 2024 को नोटिस जारी किया। अदालत ने बंदी-एम की उपस्थिति के लिए भी कहा है और मामले को बुधवार के लिए सूचीबद्ध किया।

    मामले की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए खंडपीठ ने बंदी, उसके माता-पिता और याचिकाकर्ता/के के माता-पिता के साथ स्वतंत्र चैंबर्स की बातचीत की।

    बंदी ने अपनी तीसरी बातचीत में के के माता-पिता के साथ जाने और दुबई लौटने की इच्छा व्यक्त की, जिससे वह वहां अपना करियर बना सके। उसने उल्लेख किया कि वह विभिन्न नौकरियों के लिए दुबई से प्राप्त तीन इंटरव्यू कॉलों में शामिल नहीं हो सकी, क्योंकि वह अपने माता-पिता की कस्टडी में थी। उसने यह भी कहा कि चूंकि पासपोर्ट सहित उसके सभी दस्तावेज उसके माता-पिता के पास हैं, यह लगभग ऐसा है जैसे वह घर में नजरबंद है।

    दूसरी ओर, एम के माता-पिता ने दावा किया कि वे अपनी इकलौती बेटी की इच्छाओं के विरोधी नहीं हैं। उनकी बस यही इच्छा है कि वह अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने से पहले आर्थिक रूप से स्थिर हो जाएं।

    उपर्युक्त के साथ बातचीत करने के बाद बेंच ने राय दी कि कस्टडी में ली गई महिला उच्च योग्य, परिपक्व महिला है और उसे समझ है कि उसके लिए क्या सही है और क्या गलत है।

    अदालत ने कहा,

    किसी भी मामले में बालिग लड़की को उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।

    यह टिप्पणी की गई कि उचित आदेश पारित करने में हाईकोर्ट की विफलता के कारण एम को और अधिक अवैध रूप से कस्टडी में रखा गया और साथ ही एम की भलाई सुनिश्चित करने के लिए के और उसके माता-पिता को दुबई से बेंगलुरु की लगातार यात्राएं करनी पड़ीं।

    अंत में बेंच ने माना कि एम को उसके माता-पिता द्वारा लगातार कस्टडी में रखा जाना अवैध है। यह आदेश दिया गया कि उसे तुरंत आज़ाद कर दिया जाए, जिसके बाद वह अपनी इच्छा के अनुसार आगे बढ़ सकती है।

    एम के माता-पिता को 48 घंटे के भीतर पासपोर्ट सहित उसके दस्तावेज सौंपने का निर्देश दिया गया। मामले को 22 जनवरी, 2024 को रिपोर्टिंग अनुपालन के लिए सूचीबद्ध किया गया।

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