सुप्रीम कोर्ट ने 18 साल बाद सलवा जुडूम मामले को बंद किया, छत्तीसगढ़ के सहायक सुरक्षा बल पर नए कानून को न्यायालय की अवमानना बताने वाली याचिका खारिज
Shahadat
4 Jun 2025 9:59 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने 18 साल बाद समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर (और अन्य) द्वारा दायर याचिकाओं का निपटारा कfया, जिसमें छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों और सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन को उजागर किया गया था।
संक्षेप में मामला
यह मामला छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा स्थानीय आदिवासी युवाओं को विशेष पुलिस अधिकारी (SPO) के रूप में तैनात करने और राज्य में माओवादी/नक्सली उग्रवाद समस्या के खिलाफ जवाबी उपाय के रूप में उन्हें प्रशिक्षित करने से उत्पन्न हुआ था।
2011 में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर ध्यान देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसमें छत्तीसगढ़ राज्य को राज्य में उग्रवाद समस्या से निपटने के लिए सभी SPO - या तो 'कोया कमांडो', सलवा जुडूम या किसी अन्य बल के रूप में कार्यरत - को भंग करने और निरस्त्र करने का निर्देश दिया गया था।
हालांकि, इस मामले से संबंधित दो रिट याचिकाएं और एक अवमानना याचिका सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित रही। हाल ही में न्यायालय ने तीनों मामलों का निपटारा किया। रिट याचिकाओं का निपटारा इस दृष्टिकोण के आधार पर किया गया कि उनमें मांगी गई प्रार्थनाएं न्यायालय के 2011 के फैसले में स्पष्ट रूप से निहित हैं, अवमानना प्रार्थनाओं को परमादेश की रिट की मांग के रूप में देखा गया, जिसे अवमानना क्षेत्राधिकार के तहत मंजूर नहीं किया जा सकता था।
जहां तक अवमानना याचिका में दावा किया गया कि छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 (जिसने माओवादी/नक्सली उग्रवाद समस्या से निपटने में सुरक्षा बलों की सहायता के लिए एक सहायक सुरक्षा बल की स्थापना की) के अधिनियमन के परिणामस्वरूप न्यायालय की अवमानना हुई है, जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा,
"हम यह भी देखते हैं कि छत्तीसगढ़ राज्य के विधानमंडल द्वारा इस न्यायालय के आदेश के बाद अधिनियम पारित करना इस न्यायालय द्वारा पारित आदेश की अवमानना का कार्य नहीं कहा जा सकता... किसी अधिनियम का सरलीकृत रूप से प्रख्यापन केवल विधायी कार्य की अभिव्यक्ति है। इसे न्यायालय की अवमानना का कार्य नहीं कहा जा सकता, जब तक कि यह पहले स्थापित न हो जाए कि इस प्रकार अधिनियमित कानून संवैधानिक रूप से या अन्यथा कानून की दृष्टि से खराब है।"
न्यायालय ने दोहराया कि राज्य अधिनियम तब तक कानून की ताकत रखता है, जब तक कि उसे संवैधानिक न्यायालय द्वारा संविधान के विरुद्ध घोषित न कर दिया जाए। न्यायालय ऐसे अधिनियमों की वैधता के बारे में व्याख्यात्मक शंकाओं और प्रश्नों का समाधान कर सकते हैं, लेकिन "संवैधानिक न्यायालय की व्याख्यात्मक शक्ति विधायी कार्यों के प्रयोग और अधिनियम पारित करने को न्यायालय की अवमानना के उदाहरण के रूप में घोषित करने की स्थिति पर विचार नहीं करती है।"
न्यायालय ने यह भी कहा,
"हमें यह याद रखना चाहिए कि विधायी कार्य के केंद्र में विधायी अंग की कानून बनाने और संशोधन करने की शक्ति है। संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को केवल कानून बनाने के लिए इस न्यायालय सहित न्यायालय की अवमानना का कार्य नहीं माना जा सकता।"
शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर जोर देते हुए न्यायालय ने आगे कहा कि किसी भी कानून को केवल विधायी क्षमता और संवैधानिक वैधता के दोहरे पहलुओं पर ही चुनौती दी जा सकती है।
न्यायालय ने आगे कहा,
"विधानसभा के पास अन्य बातों के साथ-साथ कानून पारित करने, किसी निर्णय के आधार को हटाने या वैकल्पिक रूप से संवैधानिक न्यायालय द्वारा निरस्त किए गए कानून को संशोधित या परिवर्तित करके वैध बनाने की शक्तियां हैं ताकि संवैधानिक न्यायालय के उस निर्णय को प्रभावी बनाया जा सके, जिसने किसी अधिनियम के किसी भाग या उस मामले के लिए संपूर्ण अधिनियम को निरस्त किया। यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का मूल है और हमारे जैसे संवैधानिक लोकतंत्र में इसे हमेशा स्वीकार किया जाना चाहिए।"
छत्तीसगढ़ की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने यह भी कहा कि क्षेत्र में शांति और पुनर्वास के लिए विशिष्ट कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
इस संबंध में न्यायालय ने कहा,
"संविधान के अनुच्छेद 315 को ध्यान में रखते हुए छत्तीसगढ़ राज्य के साथ-साथ भारत संघ का यह कर्तव्य है कि वे छत्तीसगढ़ राज्य के निवासियों के लिए शांति और पुनर्वास लाने के लिए पर्याप्त कदम उठाएँ, जो हिंसा से प्रभावित हुए हैं, चाहे वह किसी भी दिशा से उत्पन्न हुई हो।"
Case Title: NANDINI SUNDAR & ORS. VERSUS STATE OF CHATTISGARH, WRIT PETITION(S)(CIVIL) NO(S). 250/2007

