S. 389 CrPC | सजा निलंबित करने के लिए हाईकोर्ट को यह आकलन करना चाहिए कि क्या दोषी के बरी होने की उचित संभावना है: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

7 Aug 2025 9:59 AM IST

  • S. 389 CrPC | सजा निलंबित करने के लिए हाईकोर्ट को यह आकलन करना चाहिए कि क्या दोषी के बरी होने की उचित संभावना है: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (6 अगस्त) को राजस्थान हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें एक नाबालिग लड़की के यौन उत्पीड़न के लिए POCSO Act के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्ति को जमानत देने और सजा निलंबित करने का आदेश दिया गया था। न्यायालय ने कहा कि हाईकोर्ट यह आकलन करने में विफल रहा कि क्या दोषी के बरी होने की उचित संभावना है।

    न्यायालय ने कहा,

    "यह उम्मीद की जा सकती है कि हाईकोर्ट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के तहत सजा निलंबन के लिए दायर आवेदन पर सुनवाई करते हुए यह जांच करेगा कि क्या प्रथम दृष्टया रिकॉर्ड में ऐसा कुछ स्पष्ट रूप से मौजूद है, जो यह दर्शाता हो कि क्या अभियुक्त के पास दोषसिद्धि को पलटने का उचित मौका था।"

    जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की खंडपीठ ने ओमप्रकाश साहनी बनाम जय शंकर चौधरी एवं अन्य का हवाला देते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने यह आकलन करने में विफल रहा कि क्या दोषी के बरी होने की उचित संभावना है। 2023 लाइव लॉ (एससी) 389 में कहा गया कि CrPC की धारा 389 के तहत सजा के निलंबन के लिए आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय को यह जांच करनी चाहिए कि क्या रिकॉर्ड में मौजूद सामग्री इतनी मजबूत है कि प्रथम दृष्टया दोषी के बरी होने की संभावना का सुझाव दे सके।

    न्यायालय ने इस संबंध में कहा,

    “उपरोक्त विधि सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय का प्रयास यह देखना होना चाहिए कि क्या अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत और निचली अदालत द्वारा स्वीकार किया गया मामला ऐसा मामला कहा जा सकता है, जिसमें अंततः दोषी के बरी होने की उचित संभावना हो। यदि उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर हां में है तो एक आवश्यक उपपत्ति के रूप में हमें यह कहना होगा कि यदि अंततः दोषी इस न्यायालय से बरी होने का हकदार प्रतीत होता है तो उसे अपील के समापन तक, जिसमें आमतौर पर निर्णय और निपटान में बहुत लंबा समय लगता है, लंबे समय तक सलाखों के पीछे नहीं रखा जाना चाहिए। हालांकि, यह पता लगाने की कवायद करते समय कि क्या दोषी के बरी होने की उचित संभावना है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए वह कुछ प्रत्यक्ष है। दूसरे शब्दों में, कुछ ऐसा जो रिकॉर्ड के सामने बहुत स्पष्ट या स्थूल हो, जिसके आधार पर न्यायालय प्रथम दृष्टया इस निष्कर्ष पर पहुंच सके कि दोषसिद्धि स्थायी नहीं हो सकती। अपीलीय न्यायालय को ओमप्रकाश साहनी मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि, "CrPC की धारा 389 के स्तर पर साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन करना और अभियोजन पक्ष के मामले में यहां-वहां कुछ कमियां या खामियां ढूंढ़ने का प्रयास करना उचित नहीं होगा।"

    प्रतिवादी नंबर 2 को यौन अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) की धारा 3/4(2) और भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376(3) के तहत दोषी ठहराया गया। बाद में उसने अपनी सज़ा निलंबित करने की मांग की, जिसे हाईकोर्ट ने स्वीकार कर लिया, जिसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट में वर्तमान अपील दायर की गई।

    ओमप्रकाश साहनी मामले में प्रतिपादित कानून लागू करते हुए जस्टिस विश्वनाथन द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया:

    "इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि हाईकोर्ट ने CrPC की धारा 389 के तहत निलंबन के मामले पर विचार करने के लिए किसी भी प्रासंगिक कारक पर ध्यान नहीं दिया और पूर्ववृत्त को ध्यान में रखते हुए हमारा मत है कि हाईकोर्ट द्वारा सज़ा को निलंबित करना उचित नहीं है।"

    न्यायालय ने अभियोजन पक्ष की आँखों से देखी गई गवाही को महत्व देते हुए कहा कि दोषी की दोषसिद्धि के लिए ठोस चिकित्सीय साक्ष्य के अभाव की दलील सही नहीं बैठती। न्यायालय ने कहा कि निचली अदालत ने सही पाया कि अभियोजन पक्ष ने अनुपलब्धता के बारे में स्थिति स्पष्ट की है और यह भी पाया है कि DNA रिपोर्ट की अनुपलब्धता से अभियोजन पक्ष के मामले पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा।

    परिणामस्वरूप, अपील स्वीकार कर ली गई और प्रतिवादी नंबर 2-दोषी को निचली अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया गया, जहां से उसे हिरासत में ले लिया जाएगा।

    Cause Title: JAMNALAL VERSUS STATE OF RAJASTHAN AND ANOTHER

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