संभावित आरोपी CBI जांच के आदेश को चुनौती नहीं दे सकते : सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

24 April 2025 10:07 AM

  • संभावित आरोपी CBI जांच के आदेश को चुनौती नहीं दे सकते : सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संभावित आरोपी के लिए चल रही जांच को चुनौती देना संभव नहीं है।

    कोर्ट ने इस प्रकार कर्नाटक हाईकोर्ट के केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) द्वारा जांच का आदेश देने के फैसले को चुनौती देने वाली अपील खारिज की।

    कोर्ट ने कहा,

    अतः, हमारा विचार है कि एक बार FIR दर्ज हो जाने और जांच हो जाने के बाद संभावित संदिग्ध या आरोपी द्वारा CBI द्वारा जांच के निर्देश को चुनौती नहीं दी जा सकती। किसी विशेष एजेंसी को जांच सौंपने का मामला मूल रूप से न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है।”

    मामला

    जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ उस मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें अपीलकर्ता पूर्व सांसद डी.के. आदिकेशवलु के करीबी सहयोगी रहे एक व्यवसायी की हत्या के मामले में CBI जांच का आदेश देने के हाईकोर्ट के फैसले से व्यथित था।

    अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34, 120बी, 468, 465, 471, 420 के तहत दर्ज FIR में आरोपी बनाया गया था।

    मामले की जांच के लिए एक SIT गठित की गई। हालांकि, SIT की जांच से असंतुष्ट होने के कारण ट्रायल कोर्ट ने आगे की जांच का आदेश दिया।

    ट्रायल कोर्ट के फैसले से असंतुष्ट प्रतिवादियों ने CBI द्वारा जांच का निर्देश देने के लिए हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की, जिसे हाईकोर्ट ने स्वीकार कर लिया।

    हाईकोर्ट के आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और तर्क दिया कि CBI को जांच का आदेश देने से पहले अपीलकर्ता की बात नहीं सुनी गई।

    निर्णय

    हाईकोर्ट के निर्णय की पुष्टि करते हुए जस्टिस मिश्रा द्वारा लिखित निर्णय में भारत संघ बनाम डब्ल्यू.एन. चड्ढा, (1993) सप (4) एससीसी 260 के मामले का हवाला देते हुए कहा गया कि किसी अभियुक्त को आरोप तय होने से पहले जांच में भाग लेने या जांच के तरीके/तरीके को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है।

    न्यायालय ने डब्ल्यू.एन. चड्ढा के मामले में टिप्पणी की,

    “इसके अलावा, अभियुक्त को जांच के तरीके और विधि के बारे में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है। संहिता की पूरी योजना के तहत कुछ अपवादों को छोड़कर अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट पर शुरू किए गए मामले की जांच के दौरान तब तक अधिकार के तौर पर भागीदारी नहीं मिलती है, जब तक कि जांच संहिता की धारा 173(2) के तहत अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने या पुलिस रिपोर्ट के अलावा किसी अन्य आधार पर शुरू की गई कार्यवाही में तब तक भागीदारी नहीं मिलती जब तक कि संहिता की धारा 204 के तहत प्रक्रिया जारी नहीं हो जाती, जैसा भी मामला हो। यहां तक ​​कि ऐसे मामलों में भी जहां किसी शिकायत पर अपराध का संज्ञान लिया जाता है, भले ही उक्त अपराध मजिस्ट्रेट द्वारा या विशेष रूप से सेशन कोर्ट द्वारा सुनवाई योग्य हो, अभियुक्त को प्रक्रिया जारी होने तक भागीदारी करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि प्रक्रिया जारी करने को संहिता की धारा 202 के तहत विचारित रूप से स्थगित कर दिया जाता है तो अभियुक्त बाद की जांच में शामिल हो सकता है लेकिन भाग नहीं ले सकता। इस संबंध में कई न्यायिक घोषणाएं हैं, लेकिन हमें लगता है कि उन निर्णयों को फिर से दोहराना आवश्यक नहीं है। साथ ही हम यह भी बताना चाहेंगे कि संहिता के तहत कुछ प्रावधान हैं, जो मजिस्ट्रेट को कुछ विशेष परिस्थितियों में सुनवाई का अवसर देने का अधिकार देते हैं।”

    मामले के तथ्यों पर कानून लागू करते हुए और हाईकोर्ट के निर्णय की पुष्टि करते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की:

    “तदनुसार, हम हाईकोर्ट के आदेश की पुष्टि करते हैं और अपीलों को खारिज करते हैं। CBI 08 महीने की अवधि के भीतर जांच करेगी और कर्नाटक राज्य अपराध की निष्पक्ष जांच करने के लिए CBI को हर संभव सहायता प्रदान करेगा। संबंधित पुलिस द्वारा सभी कागजात 15 दिनों के भीतर CBI को सौंप दिए जाएंगे। यदि CBI आरोपपत्र दाखिल करने के लिए आगे बढ़ती है तो उसे कर्नाटक राज्य में क्षेत्राधिकार वाली CBI अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।”

    उपर्युक्त के संदर्भ में अपील खारिज कर दी गई।

    केस टाइटल: रामचंद्रैया और अन्य बनाम एम. मंजुला और अन्य।

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