Prevention Of Corruption Act | हाईकोर्ट मंजूरी की अवैधता के आधार पर आरोपी को बरी नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया

Shahadat

24 Sept 2025 3:06 PM IST

  • Prevention Of Corruption Act | हाईकोर्ट मंजूरी की अवैधता के आधार पर आरोपी को बरी नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया

    सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (PC Act) के तहत किसी आपराधिक मामले में मंजूरी की कथित अवैधता किसी आरोपी को बरी करने का आधार नहीं हो सकती।

    जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने कर्नाटक लोकायुक्त पुलिस द्वारा दायर अपीलों को स्वीकार किया और कर्नाटक हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें आरोपी को मंजूरी के अभाव के आधार पर बरी कर दिया गया। हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार के मामले पर आधारित धन शोधन मामला भी रद्द कर दिया।

    मंजूरी के मुद्दे की सुनवाई-पूर्व चरण में जांच नहीं की जा सकती

    सुप्रीम कोर्ट ने PC Act की धारा 19(3)(ए) का हवाला देते हुए कहा कि हाईकोर्ट का दृष्टिकोण "स्पष्ट रूप से कानून के विपरीत" है।

    खंडपीठ ने राज्य बनाम टी. वेंकटेश मूर्ति (2004), मध्य प्रदेश राज्य बनाम वीरेंद्र कुमार त्रिपाठी (2009) और बिहार राज्य बनाम राजमंगल राम (2014) जैसे उदाहरणों का हवाला दिया, जिनमें हाईकोर्ट को मंजूरी की अमान्यता के आधार पर सुनवाई के बीच में हस्तक्षेप करने से रोक दिया गया।

    एक्ट की धारा 19(3)(ए) के अनुसार, मंजूरी की अमान्यता के आधार पर किसी ट्रायल कोर्ट के आदेश में तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि इसके कारण न्याय में विफलता हुई है। उपर्युक्त उदाहरणों में स्पष्ट किया गया कि न्याय में विफलता मुकदमे की समाप्ति के बाद ही स्थापित की जा सकती है। इसलिए हाईकोर्ट को मंजूरी की अमान्यता के आधार पर सुनवाई-पूर्व चरण में कार्यवाही रद्द करने से रोका गया।

    वीरेंद्र कुमार त्रिपाठी मामले में यह माना गया कि स्वीकृति आदेश की अमान्यता के आधार पर किसी आपराधिक कार्यवाही को बीच में ही रोकना तब तक उचित नहीं होगा, जब तक कि अदालत इस निष्कर्ष पर न पहुंच जाए कि स्वीकृति में ऐसी किसी त्रुटि, चूक या अनियमितता के कारण न्याय में विफलता हुई। यह भी माना गया कि न्याय में विफलता आरोप निर्धारण के चरण में नहीं, बल्कि मुकदमा शुरू होने और साक्ष्य प्रस्तुत होने के बाद ही स्थापित की जा सकती है।

    वीरेंद्र कुमार त्रिपाठी मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया:

    "उक्त प्रावधान यह स्पष्ट करता है कि किसी स्पेशल जज द्वारा पारित किसी भी निष्कर्ष, दंड या आदेश को धारा 19 की उपधारा (1) के अंतर्गत अपेक्षित स्वीकृति के अभाव/या किसी त्रुटि, चूक या अनियमितता के आधार पर अपील कोर्ट द्वारा तब तक उलटा या परिवर्तित नहीं किया जाएगा, जब तक कि अदालत की राय में वास्तव में न्याय की विफलता न हुई हो। चूंकि मामला आरोप-निर्धारण के चरण में है, इसलिए इस विफलता को स्थापित करने का चरण अभी तक नहीं पहुंचा है। वास्तव में विफलता हुई या नहीं, इसका निर्धारण मुकदमा शुरू होने और साक्ष्य प्रस्तुत होने के बाद किया जाना था। इस संबंध में राज्य बनाम टी. वेंकटेश मूर्ति [2004(7) एससीसी 763] और प्रकाश सिंह बादल बनाम पंजाब राज्य [2007(1) एससीसी 1] में इस अदालत के निर्णयों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।"

    राजमंगल राम मामले में यह दोहराया गया कि न्याय की विफलता के संबंध में निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उपयुक्त चरण मुकदमा है।

    धन शोधन कार्यवाही का पुनरुद्धार

    चूंकि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध बहाल हो गया है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने माना कि धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA Act) की धारा 3 और 4 के तहत धन शोधन मामला रद्द करने का मामला भी रद्द हो जाता है।

    हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मंजूरी के प्रश्न सहित सभी मुद्दे मुकदमे के चरण में विचार के लिए खुले हैं। अदालत ने इस बड़े प्रश्न पर भी निर्णय नहीं लिया कि क्या PMLA के तहत अपराध को बाद में रद्द कर दिए जाने पर PMLA Act की कार्यवाही जारी रह सकती है।

    प्रतिवादियों की आयु को ध्यान में रखते हुए अदालत ने उन्हें व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने से छूट दी, जब तक कि ट्रायल कोर्ट द्वारा विशेष रूप से निर्देश न दिया जाए।

    Case : THE KARNATAKA LOKAYUKTHA POLICE v. LAKSHMAN RAO PESHVE

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