गरीब मजदूर न्याय पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने को मजबूर, संवैधानिक अदालतों की स्थिति खेदजनक: दिल्ली हाईकोर्ट

Shahadat

20 Feb 2024 10:18 AM GMT

  • गरीब मजदूर न्याय पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने को मजबूर, संवैधानिक अदालतों की स्थिति खेदजनक: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि देश की संवैधानिक अदालतों में यह खेदजनक स्थिति है कि गरीब मजदूरों को अपने लिए न्याय पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने को मजबूर होना पड़ता है।

    एक ऐसे मामले से निपटते हुए, जिसके फैसला आने में दो दशक से अधिक समय लग गया, जिसने गरीब कर्मचारी को "गहन अनिश्चितता की स्थिति" में छोड़ दिया, जस्टिस चंद्र धारी सिंह ने कहा:

    "इस तरह की देरी के दुष्परिणाम बहुत बड़े हैं, क्योंकि इससे कानूनी प्रणाली में विश्वास खो जाता है और गरीब वादकारी खुद को न्याय की प्रतीक्षा के कभी न खत्म होने वाले चक्र में फंसा हुआ पाते हैं।"

    अदालत ने कहा कि त्वरित और कुशल न्याय न केवल देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार है, बल्कि संपन्न लोकतंत्र की आधारशिलाओं में से एक है।

    कोर्ट ने यह भी जोड़ा,

    "यह अत्यधिक देरी वास्तविकता को रेखांकित करती है, जो निराशाजनक है और कम विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की जरूरतों को पूरा करने में न्यायपालिका की प्रभावकारिता लड़खड़ा गई है और यह न्यायालय दृढ़ता से मानता है कि अब समय आ गया है कि इस देश के संवैधानिक न्यायालयों को नागरिकों को त्वरित न्याय देने में आगे आना चाहिए।“

    वल्लभभाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट द्वारा याचिका दायर कर यह निर्देश देने की मांग की गई कि 1985 से अस्पताल में पंप ऑपरेटर के रूप में काम करने वाला आकस्मिक और दैनिक वेतनभोगी औद्योगिक न्यायाधिकरण द्वारा उसके पक्ष में पारित अवार्ड सहित किसी भी राहत का हकदार नहीं है। ट्रिब्यूनल द्वारा अस्पताल को पूरे बकाया वेतन और सेवाओं की निरंतरता के साथ कर्मचारी को बहाल करने का निर्देश दिया गया।

    अस्पताल की याचिका खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि अनुकूल अवार्ड के बावजूद, कर्मचारी इसे लागू कराने के लिए दर-दर भटक रहा है, जिससे पहली बार में उसे राहत देने का पूरा उद्देश्य विफल हो जाता है।

    अदालत ने कहा,

    "कालातीत कहावत "न्याय में देरी न्याय न मिलने के समान है" वर्तमान मामले में दृढ़ता से प्रतिध्वनित होती है, जहां इस तरह की देरी को केवल आर्थिक रूप से वंचितों की उचित अपेक्षाओं को पूरा करने में इस न्यायालय की विफलता के रूप में समझा जा सकता है। भले ही देश में विभिन्न हितधारक त्वरित न्याय के लिए प्रयास करते हैं, लेकिन अभी तक इसे हासिल नहीं किया जा सका।”

    इसमें कहा गया कि हालांकि रिट याचिका 2003 से लंबित थी, मामला 39 बार सूचीबद्ध किया गया और कोई निर्णय नहीं लिया गया।

    ट्रिब्यूनल का आदेश बरकरार रखते हुए अदालत ने कहा:

    “वर्तमान मामले को निष्कर्ष तक पहुंचने में दो दशक से अधिक समय लग गया और उक्त लंबी देरी ने वादी/गरीब कार्यकर्ता को गहरी अनिश्चितता की स्थिति में छोड़ दिया। इस तरह की देरी के दुष्परिणाम बहुत बड़े हैं, क्योंकि इससे कानूनी व्यवस्था में विश्वास खत्म हो जाता है और गरीब वादकारी खुद को न्याय के इंतजार के कभी न खत्म होने वाले चक्र में फंसा हुआ पाते हैं।''

    याचिकाकर्ता के वकील: एम.के.सिंह।

    प्रतिवादियों के लिए वकील: जवाहर राजा, मेघना डे, एल.गंगमेई और अदिति।

    केस टाइटल: वल्लभभाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट बनाम निशिकेश त्यागी और अन्य

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