ट्रायल कोर्ट के रिन्यूअल की इजाज़त देने पर क्रिमिनल केस के पेंडिंग होने का हवाला देकर पासपोर्ट रिन्यूअल से इनकार नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
20 Dec 2025 10:17 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपराधिक कार्यवाही के पेंडिंग होने का इस्तेमाल पासपोर्ट के रिन्यूअल पर अनिश्चितकालीन रोक लगाने के लिए नहीं किया जा सकता, खासकर जब सक्षम आपराधिक अदालतों ने विदेश यात्रा पर नियंत्रण रखते हुए ऐसे रिन्यूअल की इजाज़त दी हो।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने बिजनेसमैन महेश कुमार अग्रवाल द्वारा दायर अपील मंज़ूर करते हुए विदेश मंत्रालय और क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय, कोलकाता को उनका सामान्य पासपोर्ट दस साल की सामान्य अवधि के लिए फिर से जारी करने का निर्देश दिया।
बेंच ने कलकत्ता हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए कहा,
"इस कोर्ट ने कई फैसलों में बार-बार कहा है कि विदेश यात्रा का अधिकार और पासपोर्ट रखने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के पहलू हैं। उस अधिकार पर कोई भी प्रतिबंध निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित होना चाहिए। इसका एक वैध उद्देश्य के साथ एक तर्कसंगत संबंध होना चाहिए।"
हाईकोर्ट ने सिर्फ़ NIA एक्ट और UAPA के तहत उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही पेंडिंग होने के कारण अपीलकर्ता के पासपोर्ट के रिन्यूअल से इनकार कर दिया था।
स्वतंत्रता नियम है, प्रतिबंध अपवाद
बेंच के लिए लिखते हुए जस्टिस विक्रम नाथ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता राज्य का कोई उपहार नहीं है, बल्कि यह उसका पहला दायित्व है।
कोर्ट ने कहा,
"किसी नागरिक की घूमने, यात्रा करने, आजीविका और अवसर पाने की स्वतंत्रता अनुच्छेद 21 का एक अनिवार्य हिस्सा है। कोई भी प्रतिबंध सीमित, आनुपातिक और स्पष्ट रूप से कानून में निहित होना चाहिए।"
कोर्ट ने चेतावनी दी कि प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को कठोर बाधाओं में नहीं बदला जाना चाहिए, या अस्थायी अक्षमताओं को अनिश्चितकालीन बहिष्कार में बदलने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
हमारे संवैधानिक ढांचे में स्वतंत्रता राज्य का कोई उपहार नहीं है, बल्कि यह उसका पहला दायित्व है। कानून के अधीन, किसी नागरिक की घूमने, यात्रा करने, आजीविका और अवसर पाने की स्वतंत्रता भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटी का एक अनिवार्य हिस्सा है। राज्य, जहां कानून ऐसा प्रावधान करता है, न्याय, सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था के हित में उस स्वतंत्रता को विनियमित या प्रतिबंधित कर सकता है। हालांकि, ऐसा प्रतिबंध सीमित होना चाहिए, जो आवश्यक हो, प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्य के आनुपातिक हो और स्पष्ट रूप से कानून में निहित हो। जब प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को कठोर बाधाओं में बदल दिया जाता है, या अस्थायी अक्षमताओं को अनिश्चितकालीन बहिष्कार में बदलने दिया जाता है तो राज्य की शक्ति और व्यक्ति की गरिमा के बीच संतुलन बिगड़ जाता है, और संविधान का वादा खतरे में पड़ जाता है।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता का पासपोर्ट अगस्त 2023 में एक्सपायर हो गया था। हालांकि रांची में NIA कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट (जहां CBI की सज़ा के खिलाफ उसकी अपील पेंडिंग है) दोनों ने रिन्यूअल के लिए "नो ऑब्जेक्शन" दे दिया, लेकिन उन्होंने कड़ी शर्तें लगाईं: वह कोर्ट की पहले से अनुमति के बिना विदेश यात्रा नहीं कर सकता और रांची कोर्ट ने रिन्यू किए गए पासपोर्ट को अपने पास दोबारा जमा करने का आदेश दिया।
इन न्यायिक अनुमतियों के बावजूद, पासपोर्ट अथॉरिटी ने पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 6(2)(f) के तहत रोक का हवाला देते हुए रिन्यूअल से इनकार किया, जो आपराधिक कार्यवाही पेंडिंग होने पर इनकार करना अनिवार्य बनाता है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस इनकार को सही ठहराया और कानून की व्याख्या करते हुए कहा कि जब तक आपराधिक अदालत का आदेश किसी विशेष विदेश यात्रा के लिए अनुमति नहीं देता, तब तक यह रोक पूरी तरह से लागू रहेगी।
हाईकोर्ट का दृष्टिकोण गलत पाते हुए जस्टिस नाथ द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 6(2)(f) का एकमात्र उद्देश्य आरोपी की अदालत में उपलब्धता सुनिश्चित करना है, न कि स्थायी अक्षमता थोपना।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पासपोर्ट अधिनियम की धारा 6(2)(f) कोई पूर्ण रोक नहीं है और इसे धारा 22 और छूट अधिसूचना GSR 570(E) के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा,
“दोनों ने धारा 6(2)(f) को तब तक पूरी तरह से रोक माना है, जब तक कोई क्रिमिनल कार्यवाही चल रही है, बिना धारा 22 और GSR 570(E) के तहत कानूनी छूट के मैकेनिज्म को पूरी तरह से लागू किए। इस बात को ठीक से समझे बिना कि जो क्रिमिनल कोर्ट असल में अपीलकर्ता के मामलों को देख रहे हैं, उन्होंने जानबूझकर रिन्यूअल की इजाज़त दी है। साथ ही किसी भी विदेश यात्रा पर कड़ा कंट्रोल भी रखा है। उन्होंने असल में एक सीमित पाबंदी को, जो किसी आरोपी की मौजूदगी पक्का करने के लिए बनाई गई, एक वैलिड पासपोर्ट रखने में लगभग स्थायी विकलांगता में बदल दिया, भले ही खुद क्रिमिनल कोर्ट ऐसी विकलांगता को ज़रूरी न मानते हों।”
कोर्ट ने कहा,
“धारा 6(2)(f) और धारा 10(3)(e) के पीछे असली मकसद यह पक्का करना है कि क्रिमिनल कार्यवाही का सामना करने वाला व्यक्ति क्रिमिनल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में रहे। यह मकसद इस मामले में रांची की NIA कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा लगाई गई शर्तों से पूरी तरह से पूरा होता है, जिसमें अपीलकर्ता को किसी भी विदेश यात्रा से पहले पहले से इजाज़त लेने की ज़रूरत होती है। NIA मामले में रिन्यूअल के तुरंत बाद पासपोर्ट दोबारा जमा करना होता है। इन सुरक्षा उपायों में एक रिन्यू किए गए पासपोर्ट को भी अनिश्चित काल के लिए मना करना, जबकि दोनों क्रिमिनल कोर्ट ने जानबूझकर रिन्यूअल की इजाज़त दी है, अपीलकर्ता की आज़ादी पर एक असंगत और अनुचित पाबंदी होगी।”
कोर्ट ने आगे कहा,
“इस अंदाज़े के डर से रिन्यूअल से मना करना कि अपीलकर्ता पासपोर्ट का गलत इस्तेमाल कर सकता है, असल में क्रिमिनल कोर्ट के जोखिम के आकलन पर सवाल उठाना है और पासपोर्ट अथॉरिटी के लिए एक सुपरवाइज़री भूमिका मान लेना है जो कानून में नहीं है।”
इसके साथ ही अपील मंज़ूर कर ली गई।
Cause Title: MAHESH KUMAR AGARWAL VERSUS UNION OF INDIA & ANR.

