पुलिस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में शिक्षित करने की जरूरत, उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में संवेदनशील बनाया जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

8 March 2024 12:02 PM GMT

  • पुलिस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में शिक्षित करने की जरूरत, उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में संवेदनशील बनाया जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

    अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की आलोचना करने वाले अपने व्हाट्सएप स्टेटस के लिए प्रोफेसर के खिलाफ आपराधिक मामला रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (7 मार्च) को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर कानून प्रवर्तन को शिक्षित करने की आवश्यकता के बारे में महत्वपूर्ण टिप्पणी की।

    कोर्ट ने कहा,

    “अब संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा और उनके स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति पर उचित संयम की सीमा के बारे में हमारी पुलिस मशीनरी को प्रबुद्ध और शिक्षित करने का समय आ गया है। उन्हें हमारे संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में संवेदनशील बनाया जाना चाहिए।”

    जस्टिस अभय एस ओक और उज्जल भुइयां की खंडपीठ द्वारा दिए गए व्यापक फैसले में उक्त टिप्पणी की गई। फैसले में विशेष रूप से सार्वजनिक महत्व के मामलों में असहमति और आलोचना व्यक्त करने के नागरिकों के मौलिक अधिकार पर जोर दिया गया।

    यह फैसला प्रोफेसर जावेद अहमद हजाम से जुड़े मामले के संदर्भ में दिया गया, जिन पर अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के संबंध में अपने व्हाट्सएप स्टेटस मैसेज के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 153ए के तहत आरोप का सामना करना पड़ा।

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने पहले अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की आलोचना करने वाले इस व्हाट्सएप स्टेटस पर उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया था। उक्त मैसेज में इसे 'जम्मू-कश्मीर के लिए काला दिन' बताया था। हाईकोर्ट की खंडपीठ ने चिंताओं का हवाला देते हुए कहा कि मैसेज विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य और दुर्भावना को बढ़ावा दे सकते हैं।

    हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की प्रधानता को मान्यता देते हुए अलग रुख अपनाया।

    आईपीसी की धारा 153ए के तहत संकटग्रस्त प्रोफेसर के खिलाफ आपराधिक मामला रद्द करते हुए अदालत ने कहा,

    “उक्त गारंटी के तहत प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और जम्मू-कश्मीर की स्थिति में बदलाव या उस मामले के लिए राज्य के हर फैसले की आलोचना करने का अधिकार है। उन्हें यह कहने का अधिकार है कि वह राज्य के किसी भी निर्णय से नाखुश हैं...जिस दिन निरस्तीकरण हुआ उस दिन को 'काला दिवस' के रूप में वर्णित करना विरोध और पीड़ा की अभिव्यक्ति है...यह उनके व्यक्तिगत दृष्टिकोण और निरस्तीकरण पर उनकी प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति है। यह ऐसा कुछ करने के इरादे को नहीं दर्शाता, जो धारा 153-ए के तहत निषिद्ध है। ज़्यादा से ज़्यादा, यह एक विरोध है, जो अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा गारंटीकृत उनकी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है।

    अदालत ने यह भी कहा,

    "यदि राज्य के कार्यों की हर आलोचना या विरोध को धारा 153-ए के तहत अपराध माना जाएगा तो लोकतंत्र, जो भारत के संविधान की एक अनिवार्य विशेषता है, जीवित नहीं रहेगा।"

    न्यायाधीशों ने इस बात पर भी जोर दिया कि असहमति की अभिव्यक्ति का मूल्यांकन 'कमजोर विवेक' वाले व्यक्तियों पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को समझने वाले उचित व्यक्तियों पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर किया जाना चाहिए।

    प्रोफेसर द्वारा पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाते हुए साझा किए गए दूसरे संदेश के संबंध में खंडपीठ ने इस बात पर जोर दिया कि नागरिकों को वैमनस्य को बढ़ावा देने के रूप में देखे बिना अन्य देशों को शुभकामनाएं देने का अधिकार है। इसने अपीलकर्ता को किसी भी मकसद के लिए केवल इसलिए जिम्मेदार ठहराने के प्रति आगाह किया, क्योंकि वह विशेष धर्म से है।

    केस टाइटल: जावेद अहमद हजाम बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य। | आपराधिक अपील नंबर 886/2024

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