आरोप से अपराध सिद्ध न होने पर FIR में धारा 307 IPC का उल्लेख समझौते के आधार पर मामला रद्द करने से नहीं रोकता: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
12 Feb 2025 4:06 AM

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि FIR में गैर-समझौता योग्य अपराध का उल्लेख मात्र हाईकोर्ट को समझौते के आधार पर मामला रद्द करने से नहीं रोकता है, यदि बारीकी से जांच करने पर तथ्य आरोप का समर्थन नहीं करते हैं।
अपराध की प्रकृति, चोटों की गंभीरता, अभियुक्त का आचरण और समाज पर अपराध के प्रभाव जैसे कारकों का हवाला देते हुए न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि गैर-समझौता योग्य मामलों को भी समझौते के आधार पर रद्द किया जा सकता है।
जस्टिस केवी विश्वनाथन और जस्टिस एसवीएन भट्टी की खंडपीठ इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अपीलकर्ता के खिलाफ धारा 307 आईपीसी (गैर-समझौता योग्य अपराध) के तहत हत्या के प्रयास के अपराध के लिए आपराधिक कार्यवाही रद्द करने से इनकार किया गया, भले ही पक्षों के बीच समझौता हो गया।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने समझौता करने को गलत समझा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि कार्यवाही रद्द कर दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्हें जारी रखना निरर्थक होगा, खासकर यह देखते हुए कि मामला 1991 से लंबित है और चोटों की प्रकृति क्या है।
हाईकोर्ट के निर्णय को दरकिनार करते हुए जस्टिस विश्वनाथन द्वारा लिखे गए निर्णय में पाया गया कि हाईकोर्ट ने अपराध के समझौता करने और कार्यवाही रद्द करने के बीच के अंतर को न समझकर गलती की।
ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2012) 10 एससीसी 303 में दर्ज मामले पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने कहा कि अपराधी और पीड़ित के बीच समझौते के आधार पर अपराध या आपराधिक कार्यवाही रद्द करना अपराध के समझौता करने के समान नहीं है।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम लक्ष्मी नारायण एवं अन्य (2019) 5 एससीसी 688 और नरिंदर सिंह एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2014) 6 एससीसी 466 जैसे मामलों पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने पाया कि अपराध की प्रकृति, चोटों की गंभीरता, अभियुक्त का आचरण और समाज पर अपराध के प्रभाव जैसे कारक समझौते के आधार पर गैर-समझौता योग्य मामला रद्द करने को उचित ठहरा सकते हैं।
नरिंदर सिंह मामले में, हालांकि न्यायालय ने पाया कि धारा 307 आईपीसी उन मामलों की श्रेणी में आती है, जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता, लेकिन उसने यह भी कहा कि हाईकोर्ट को अभी भी जांच करनी चाहिए कि क्या आरोपों के आधार पर धारा 307 आईपीसी को जोड़ना उचित था।
अदालत ने आगे कहा,
"मामले की विशेषताओं पर विचार करते हुए और समझौते को रिकॉर्ड पर लेते हुए तथा कानून लागू करते हुए हम पाते हैं कि यह उपयुक्त मामला है, जहां अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, कोर्ट नंबर 5, मुरादाबाद की अदालत में लंबित केस क्राइम नंबर 248/1991 से उत्पन्न शिकायत केस नंबर 8023/2015 की कार्यवाही रद्द की जानी चाहिए।"
तदनुसार, अपील को अनुमति दी गई।
केस टाइटल: नौशे अली और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य।