न्याय देने में इंसानी सोच की जगह AI नहीं ले सकता: जस्टिस विक्रम नाथ
Praveen Mishra
9 Sept 2025 4:41 PM IST

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ ने हाल ही में कहा कि भविष्य में न्याय प्रणाली को सच्ची जानकारी, मीडिया के प्रभाव और तकनीक-आधारित निष्पक्षता के बीच संतुलन की बड़ी परीक्षा देनी होगी।
उन्होंने कहा,“अगर पिछली सदी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई की थी, तो आने वाली सदी सच्ची अभिव्यक्ति (True Speech) की लड़ाई की होगी — यानी ऐसी जानकारी जो सही, नैतिक और गरिमा का सम्मान करने वाली हो। अगर पिछली सदी न्याय तक पहुँच की जद्दोजहद की थी, तो आने वाली सदी तकनीक-प्रधान न्याय में निष्पक्षता की होगी। और अगर पिछली सदी में प्रेस की ताकत पर बहस हुई, तो आने वाली सदी में एल्गोरिद्म की ताकत पर होगी। संघर्ष कभी खत्म नहीं होता।”
उन्होंने कहा कि न्याय के लिए संवेदना और अंतरात्मा जरूरी है,“कानून सिर्फ़ कार्यक्षमता का विषय नहीं है; यह न्याय, समानता और अंतरात्मा से जुड़ा है। जज कोई एल्गोरिद्म नहीं होता; वह इंसान होता है, जो संवैधानिक नैतिकता, सहानुभूति और जीवन के अनुभव से चलता है। मशीन न पीड़ित की पीड़ा समझ सकती है, न आरोपी का पछतावा, न सामाजिक संदर्भों की जटिलता। न्याय कोई उत्पाद नहीं है, यह एक प्रक्रिया है, जिसमें गरिमा से कोई समझौता नहीं हो सकता। AI की भूमिका अदालतों में सहायक की हो सकती है, लेकिन अंतिम निर्णय हमेशा इंसान के हाथ में होना चाहिए।”
सीबीए और उड़ीसा हाईकोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा कटक में आयोजित मीडिया, एआई और लॉ सेमिनार में बोलते हुए उन्होंने कहा कि अदालतों में ई-फाइलिंग, ट्रांसक्रिप्शन और अनुवाद जैसे क्षेत्रों में AI पहले से मदद कर रहा है, लेकिन इसके इस्तेमाल से पक्षपात, पारदर्शिता की कमी, जवाबदेही और गोपनीयता उल्लंघन जैसी चिंताएँ हैं। उन्होंने कहा: “मशीन सक्षम हो सकती है, लेकिन पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं। कारण के बिना दिया गया निर्णय, निर्णय ही नहीं है।”
उन्होंने बताया कि यूरोपीय संघ AI Act बना रहा है, यूनेस्को ने नैतिक दिशा-निर्देश दिए हैं, और अमेरिका ने भविष्यवाणी आधारित सज़ा (Predictive Sentencing) वाले टूल्स को नहीं अपनाया। भारत को भी अपनी संवैधानिक मूल्यों पर आधारित सुरक्षा व्यवस्था बनानी होगी — जैसे पारदर्शिता के नियम, पक्षपात रोकने के लिए ऑडिट, AI त्रुटियों के लिए ज़िम्मेदारी तय करना और मज़बूत डेटा सुरक्षा।
मीडिया की भूमिका पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि प्रेस की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) से बहती है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) के तहत उस पर प्रतिबंध भी हैं। मीडिया प्रहरी है, लेकिन जज नहीं बन सकता। उन्होंने चेतावनी दी कि 24x7 टीवी और सोशल मीडिया के दौर में आंशिक या संदर्भ से बाहर रिपोर्टिंग न्यायिक स्वतंत्रता और निर्दोषता की धारणा को कमजोर कर सकती है।
उन्होंने कहा,“अदालतें सोच-समझकर, संतुलन और निष्पक्षता के साथ धीरे-धीरे बढ़ती हैं। जबकि मीडिया और एआई वास्तविक समय में काम करते हैं, जहाँ सटीकता और जवाबदेही अक्सर पीछे छूट जाती है।”
उन्होंने नूपुर शर्मा केस और “India's Got Latent” विवाद का उदाहरण देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की टिप्पणियों को सोशल मीडिया पर इस तरह फैलाया गया कि अदालत पर बेवजह आलोचना हुई, जबकि दोनों मामलों में राहत दी गई थी।
उन्होंने कहा कि आलोचना जानकारीपूर्ण, रचनात्मक और न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सम्मान करने वाली होनी चाहिए। लेकिन जब टिप्पणी अदालत की गरिमा को गिराने लगती है, तो यह सीमा पार कर देती है। कई बार सोशल मीडिया क्लिकबेट के लिए अदालत की बहस के हिस्से चुनकर पेश करता है, जिससे अदालतों की साख को नुकसान होता है।
उन्होंने चेताया कि अदालतों की कार्यवाही की गलत रिपोर्टिंग कभी-कभी “समानांतर अभियोजन (Parallel Prosecution)” में बदल जाती है, जो अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को कमजोर करती है।
जस्टिस नाथ ने कहा कि मीडिया और अदालतों, दोनों को सहयोग और आत्म-अनुशासन अपनाना होगा। मीडिया को नैतिक संहिता बनानी चाहिए ताकि रिपोर्टिंग में सटीकता, गोपनीयता और निष्पक्षता बनी रहे। वहीं अदालतों को भी आधुनिक संचार की हकीकत को देखते हुए ऐसे सिद्धांत बनाने चाहिए जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई दोनों की रक्षा करें।
उन्होंने कहा कि AI और मीडिया मिलकर “Echo Chambers” बनाते हैं, जहाँ कुछ कथानक बढ़ाए जाते हैं और कुछ दबा दिए जाते हैं। ऐसे में कानून को इस धुंधली सीमा में रास्ता बनाना होगा, जहाँ तथ्य और राय, सच और झूठ का फर्क धुंधला हो रहा है।
उन्होंने डीपफेक का जिक्र करते हुए रश्मिका मंदाना केस, और दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा अनिल कपूर व जैकी श्रॉफ को मिली सुरक्षा का हवाला दिया और कहा कि ऐसे दुरुपयोग से न्याय और सच्चाई पर सवाल उठते हैं।
उन्होंने तकनीकी बदलाव को हमेशा अनुच्छेद 19, 14 और 21 की कसौटी पर परखने की बात कही और भविष्य के लिए तीन रास्ते सुझाए:
1. डेटा और AI पर मज़बूत कानूनी ढांचा,
2. न्यायपालिका की तैयारी और तकनीक उपयोग में पारदर्शिता,
3. न्यायपालिका, मीडिया, बार और टेक समुदाय की साझा जिम्मेदारी।
युवा वकीलों से उन्होंने अपील की कि वे AI दुरुपयोग से जुड़े मामलों के लिए टेम्पलेट ड्राफ्टिंग तैयार करें, जिसमें तकनीक का विवरण, फोरेंसिक सबूत, बहु-आधारिक राहत (व्यक्तित्व अधिकार, मानहानि, IT कानून) और Dynamic Injunctions शामिल हों।
उन्होंने याद दिलाया कि वकीलों और जजों को खुद भी AI उपयोग में पारदर्शिता रखनी चाहिए और यह नहीं भूलना चाहिए कि AI इंसान की जगह नहीं ले सकता। उन्होंने मज़ाक में कहा:
“AI 500 पन्ने पढ़कर संक्षेप बना सकता है, लेकिन वह जज की भौंह का इशारा नहीं समझ सकता।”
अंत में उन्होंने कहा कि मीडिया को अपनी नैतिकता वापस लानी होगी, AI को पारदर्शी रूप से नियंत्रित करना होगा, और कानून को संवैधानिक मूल्यों का सतर्क प्रहरी बने रहना होगा।
हल्के अंदाज में उन्होंने जोड़ा, “अगर कभी कोई AI अदालत में हमें बदल दे, तो मेरी बस यही विनती है कि वह गलियारों में लाइन भी लगाए और फाइलें खोजने के लिए रजिस्ट्री के पीछे भी भागे।”

