यदि डीड बिना स्वामित्व के किसी व्यक्ति द्वारा निष्पादित किया गया तो उत्तराधिकारी ऐसे डीड के आधार पर संपत्ति पर अधिकार लागू नहीं कर सकते: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

11 April 2024 8:03 AM GMT

  • यदि डीड बिना स्वामित्व के किसी व्यक्ति द्वारा निष्पादित किया गया तो उत्तराधिकारी ऐसे डीड के आधार पर संपत्ति पर अधिकार लागू नहीं कर सकते: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यदि कोई कानूनी दस्तावेज़ के माध्यम से संपत्ति के अधिकार किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरित करने का प्रयास करता है, लेकिन वास्तव में उन अधिकारों का मालिक नहीं है, तो नए मालिक या उनके उत्तराधिकारियों के पास उस दस्तावेज़ से उन अधिकारों का दावा करने का कानूनी अधिकार नहीं होगा।

    कोर्ट ने आगे कहा,

    "यदि कुछ संपत्ति में अधिकार, स्वामित्व या हित की मांग किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है, जिसके पास स्वयं संप्रेषित किए जा रहे विषय पर किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं है, यहां तक कि ऐसी संपत्ति पर हस्तांतरण के मौजूदा डीड के साथ भी, अनुदान प्राप्तकर्ता उस पर हित के उत्तराधिकारियों के पास उस अधिकार को लागू करने का कानूनी अधिकार नहीं होगा, जो बाद वाले को ऐसे उपकरण से प्राप्त हो सकता है।"

    न्यायालय ने यह भी माना कि यदि किसी डीड को देखने से यह स्पष्ट है कि वाहक के पास संपत्ति पर स्वामित्व नहीं है तो न्यायालय से एक विशिष्ट घोषणा की मांग करने की आवश्यकता नहीं है कि दस्तावेज़ अमान्य है।

    यदि मुकदमे का कोई भी पक्ष स्वामित्व के बचाव में आवाज उठाता है तो न्यायालय स्वामित्व के प्रश्न की जांच कर सकता है, भले ही दस्तावेज़ की अमान्यता के संबंध में कोई विशिष्ट घोषणा नहीं मांगी गई हो।

    मामला पहले पति की संपत्ति को उसकी पत्नी (चिरुथे) द्वारा एक पट्टा विलेख के माध्यम से हस्तांतरित करने से संबंधित है, जिस पर उसका स्वामित्व नहीं है।

    जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस सुधांशु धूलिया की खंडपीठ ने कहा,

    "यदि अचल संपत्ति को हस्तांतरित करने की मांग करने वाला कोई दस्तावेज़ प्रथमदृष्ट्या यह प्रकट करता है कि वाहक के पास उस पर स्वामित्व नहीं है तो विशिष्ट घोषणा कि दस्तावेज़ अमान्य है, आवश्यक नहीं होगी। न्यायालय किसी भी पक्ष की स्थिति में स्वामित्व की जांच कर सकता है। साथ ही कार्यवाही इस बचाव को स्थापित करती है। चिरुथे ऐसी कोई संपत्ति नहीं बता सके जिस पर उनका कोई अधिकार या स्वामित्व न हो।"

    जस्टिस अनिरुद्ध बोस द्वारा लिखित फैसले में कहा गया,

    "वादी (अब प्रतिवादी के रूप में उसके उत्तराधिकारियों द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया) ने चिरुथे के माध्यम से मुकदमे की संपत्ति में अपने हिस्से का दावा करने की मांग की। लेकिन जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं, चिरुथे ने दूसरी शादी करने पर विषय संपत्ति पर अपना अधिकार खो दिया। दूसरे, उसकी स्थिति खत्म हो गई। उक्त संपत्ति, 1910 के बाद यदि पट्टेदार की थी तो किसी भी दस्तावेज में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि उक्त पट्टा (प्रदर्शन ए-1) वाद संपत्ति के स्वामित्व की निर्धारित अवधि से आगे बढ़ सकता है। यह नहीं कहा जा सकता कि यह मूल वादी को किसी भी तरह से हस्तांतरित किया गया, जिसका जन्म चिरुथे और नीलकंदन के विवाह के दौरान हुआ था। इसलिए हमने हाईकोर्ट का निर्णय रद्द कर दिया और प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की जाएगी।

    पहले पति की मृत्यु के बाद पत्नी (चिरुथे) ने दूसरी शादी कर ली। दूसरी शादी के माध्यम से पत्नी ने एक और बेटे को जन्म दिया, जिसने अपने पहले पति से अपनी मां को मिली संपत्ति में कुछ हिस्सेदारी का दावा किया।

    स्पष्टता के लिए यहां अपीलकर्ता सिविल मुकदमे में मूल प्रतिवादी थे, जबकि उत्तरदाता वादी थे।

    वादी (दूसरी शादी से पैदा हुआ बेटा) ने बंटवारे के लिए मुकदमा दायर किया, जिसे ट्रायल कोर्ट ने अनुमति दे दी। हालांकि, प्रथम अपीलीय अदालत ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को यह कहते हुए पलट दिया कि पत्नी को दूसरी शादी करने पर अपने मृत पति की संपत्ति पर अधिकार नहीं मिलेगा। इसके अलावा, प्रथम अपीलीय अदालत ने माना कि पत्नी के पास पट्टा बनाने का कोई अधिकार नहीं है और ऐसा लेनदेन, जिसके द्वारा वह विषय संपत्ति को पट्टे पर देना चाहती थी, कानून में स्वीकार्य नहीं है।

    हाईकोर्ट ने प्रथम अपीलीय न्यायालय का फैसला पलट दिया, जिसके बाद पहली शादी से पैदा हुए बेटे के उत्तराधिकारियों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील दायर की गई।

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपीलकर्ताओं/प्रतिवादियों (पहली शादी से पैदा हुए पत्नी के बेटे के उत्तराधिकारी) द्वारा यह तर्क दिया गया कि उत्तरदाताओं/वादी (पत्नी की दूसरी शादी से पैदा हुए बेटे के उत्तराधिकारी) पत्नी के रूप में संपत्ति पर विभाजन का दावा नहीं कर सकते हैं। दूसरी शादी करने पर उसने विषय संपत्ति पर अपना अधिकार खो दिया।

    अपीलकर्ता का तर्क स्वीकार करते हुए जस्टिस अनिरुद्ध बोस द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि वादी/प्रतिवादी अपनी मां (चिरुथे) के माध्यम से विषय संपत्ति पर विभाजन का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि उन्होंने दूसरी शादी करने के बाद विषय संपत्ति पर अपना अधिकार खो दिया।

    केस टाइटल: किझाक्के वट्टाकांडियिल माधवन (डी) टीएचआर एलआरएस बनाम थिय्युरकुनाथ मीथल जानकी

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