कोई लॉ अधिकारी कैसे कह सकता है कि वह संसद द्वारा पारित संशोधन का समर्थन नहीं करेगा? AMU मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल से पूछा

Shahadat

24 Jan 2024 7:25 AM GMT

  • कोई लॉ अधिकारी कैसे कह सकता है कि वह संसद द्वारा पारित संशोधन का समर्थन नहीं करेगा? AMU मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल से पूछा

    अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) मामले में सुनवाई के पांचवें दिन कुछ नाटकीय क्षण देखने को मिले। उक्त दिन सॉलिसिटर जनरल ने जब कहा कि वह 1981 में संसद द्वारा पारित संशोधन का समर्थन नहीं कर रहे हैं, जिसका प्रभाव AMU को अल्पसंख्यक दर्जा देने पर है।

    चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) की अगुवाई वाली सात-न्यायाधीशों की पीठ ने एसजी की इस दलील पर आश्चर्य व्यक्त किया और पूछा कि केंद्र सरकार का कानून अधिकारी संसद द्वारा पारित संशोधन का विरोध कैसे कर सकता है।

    सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने एसजी से कहा,

    "संसद अविनाशी, अविभाज्य और निरंतर इकाई है। हम भारत सरकार को यह कहते हुए नहीं सुन सकते कि वे संशोधन के साथ खड़े नहीं हैं।"

    हालांकि एसजी तुषार मेहता ने अपना रुख दोहराया।

    यह इंगित करते हुए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विभिन्न आधारों पर 1981 का संशोधन रद्द कर दिया था, एसजी ने कहा कि लॉ ऑफिसर के रूप में वह यह प्रस्तुत करने के हकदार हैं कि हाईकोर्ट का दृष्टिकोण सही प्रतीत होता है, खासकर 7-जज बेंच के समक्ष संवैधानिक मुद्दे का जवाब देते समय।

    इससे पीठ और भी आश्चर्यचकित हो गई।

    सीजेआई ने टिप्पणी की,

    "यह कट्टरपंथी है, लॉ ऑफिसर कह रहा है कि संसद ने जो कहा है, उसका वह पालन नहीं करेगा! क्या हम संघ के किसी भी अंग को यह कहते हुए सुन सकते हैं कि वे संसद द्वारा पारित होने के बावजूद संशोधन का समर्थन नहीं करेंगे? संसद अविनाशी, अविभाज्य इकाई है। आप कैसे कह सकते हैं कि मैं संशोधन की वैधता को स्वीकार नहीं करता?"

    अपने रुख को मजबूत करने के लिए एसजी ने आपातकाल के दौरान संविधान में किए गए कुख्यात संशोधनों का उल्लेख किया।

    एसजी ने पूछा,

    "क्या किसी कानून अधिकारी से यह कहने की उम्मीद की जाएगी कि आपातकाल के दौरान संविधान में जो भी संशोधन किए गए, वे वैध हैं, सिर्फ इसलिए कि वे संसद द्वारा किए गए?"

    सीजेआई ने जवाब दिया,

    "यही कारण है कि सभी बुराइयों को दूर करने के लिए 44वां संशोधन अस्तित्व में आया।"

    एसजी ने पूछा,

    "हमने तय किया कि ये वो बुराइयां थीं, जो की गईं।"

    सीजेआई ने कहा,

    "जाहिर है, आप मेरी बात साबित करते हैं। निर्णय लेने की शक्ति लोगों के निर्वाचित निकाय के पास है। संसद हमेशा कह सकती है कि हमने आपातकाल में जो किया, वह गलत है और उसे हमेशा सुधार सकती है।"

    इस बिंदु पर, सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने हस्तक्षेप करते हुए बताया कि तत्कालीन अटॉर्नी जनरल निरेन डे ने आपातकाल का बचाव किया था।

    एसजी ने जवाब देते हुए कहा कि निरेन डे ऐसी स्थिति में नहीं थे, जहां हाईकोर्ट का फैसला आया हो। यहां, हाईकोर्ट द्वारा लिया गया दृष्टिकोण था, जिसका समर्थन करने का संघ हकदार है।

    एसजी ने रेखांकित किया कि लॉ अधिकारी के रूप में यह उनका व्यक्तिगत विचार नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार द्वारा हलफनामे में व्यक्त किया गया विचार है।

    1981 का संशोधन अज़ीज़ बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले के प्रभाव को कम करने के लिए पारित किया गया, जिसमें घोषित किया गया कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। 1981 में संसद ने यूनिवर्सिटी को प्रभावी रूप से अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान करने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट 1920 में संशोधन किया।

    हालांकि, 2006 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1981 का संशोधन रद्द कर दिया और घोषणा की कि एएमयू संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थान के अधिकारों का दावा करने का हकदार नहीं है।

    हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील को 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने 7 जजों की बेंच को भेज दिया गया।

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