गुजरात की अदालतों द्वारा अग्रिम जमानत देते समय पुलिस को रिमांड मांगने की अनुमति देना अवैध : सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

8 Aug 2024 5:23 AM GMT

  • गुजरात की अदालतों द्वारा अग्रिम जमानत देते समय पुलिस को रिमांड मांगने की अनुमति देना अवैध : सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने माना कि गुजरात की अदालतों द्वारा अग्रिम जमानत देते समय जांच अधिकारियों को आरोपी की पुलिस हिरासत रिमांड मांगने की स्वतंत्रता देने की प्रथा अवैध है।

    कोर्ट ने कहा,

    पुलिस को ऐसी स्वतंत्रता देने से अग्रिम जमानत देने का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।

    कोर्ट ने यह फैसला पुलिस इंस्पेक्टर और न्यायिक मजिस्ट्रेट को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई अंतरिम अग्रिम जमानत का उल्लंघन करते हुए आरोपी की गिरफ्तारी और रिमांड के लिए अदालत की अवमानना ​​का दोषी ठहराते हुए सुनाया।

    अवमानना ​​करने वालों ने बचाव में कहा कि गुजरात में अपनाई जाने वाली प्रथा के अनुसार, पुलिस को अग्रिम जमानत दिए गए आरोपी की हिरासत के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन दायर करने की स्वतंत्रता दी जाती है। उन्होंने सुनीलभाई सुधीरभाई कोठारी बनाम गुजरात राज्य मामले में गुजरात हाईकोर्ट के 2014 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि अग्रिम जमानत देने वाला आदेश पुलिस की हिरासत मांगने की शक्ति को बाधित नहीं करेगा।

    उन्होंने प्रस्तुत किया कि इस फैसले के बाद गुजरात की अदालतें अग्रिम जमानत देने वाले आदेशों में शर्त शामिल करने की सतत प्रथा का पालन कर रही हैं कि जांच अधिकारी को आवश्यकता पड़ने पर आरोपी की पुलिस हिरासत रिमांड मांगने का अधिकार होगा।

    इस बचाव को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुरू में ही बताया कि उसके अंतरिम आदेश में पुलिस को हिरासत मांगने की अनुमति देने वाली कोई शर्त शामिल नहीं की गई है। इसलिए आरोपी की रिमांड सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्पष्ट उल्लंघन है।

    आगे बढ़ते हुए न्यायालय ने गुजरात राज्य में प्रचलित इस प्रथा को अस्वीकार कर दिया।

    जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने टिप्पणी की,

    "गुजरात सरकार के अतिरिक्त मुख्य सचिव और गुजरात हाईकोर्ट की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट द्वारा राज्य में लंबे समय से चली आ रही प्रथा के बारे में दी गई दलीलें, कि सक्षम न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत दिए जाने के बाद जांच अधिकारी को अभियुक्त की पुलिस हिरासत रिमांड मांगने की स्वतंत्रता दी जाती है, हमें एक पल के लिए भी अपील नहीं करती। ऐसी व्याख्या कानून की स्पष्ट स्थिति के अनुरूप नहीं लगती। धारा 438 सीआरपीसी या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (जिसे आगे 'BNSS' के रूप में संदर्भित किया जाता है) की नई अधिनियमित धारा 482 के तहत उल्लिखित अग्रिम जमानत के प्रावधान, जो 1 जुलाई, 2024 से प्रभावी हो गए हैं, जांच अधिकारी को ऐसी किसी भी स्वतंत्रता की परिकल्पना नहीं करते हैं।"

    न्यायालय ने बताया कि सुशीला अग्रवाल और अन्य बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) और अन्य (2020) में संविधान पीठ के फैसले के अनुसार, न्यायालय केवल असाधारण परिस्थितियों में ही अग्रिम जमानत की अवधि को सीमित कर सकता है।

    न्यायालय ने कहा,

    "हालांकि, यह तर्क नहीं है कि स्वाभाविक रूप से हाईकोर्ट या सेशन कोर्ट, जैसा भी मामला हो, अग्रिम जमानत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए अभियुक्त को गिरफ्तारी-पूर्व जमानत प्रदान करता है। फिर भी हमेशा जांच अधिकारी को नियमित तरीके से अभियुक्त को लंबे समय तक हिरासत में रखने की पूरी छूट दी जाती है। यह वस्तुतः अभियुक्त को अग्रिम जमानत प्रदान करने के पीछे के उद्देश्य और मंशा को विफल कर देगा।"

    पुलिस को रिमांड मांगने की अनुमति देना अग्रिम जमानत के उद्देश्य को नकार देगा

    न्यायालय ने कहा,

    "एक बार अग्रिम जमानत प्रदान करने के लिए लागू सख्त मापदंडों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ऐसी शक्ति का प्रयोग करता है तो ऐसी स्थिति में जांच अधिकारी को अभियुक्त की पुलिस हिरासत रिमांड मांगने का अधिकार देना, वस्तुतः अग्रिम जमानत के आदेश के पीछे के उद्देश्य को नकार देगा और विफल कर देगा।"

    न्यायालय ने घोषित किया कि गुजरात में अपनाई गई यह प्रथा सुशीला अग्रवाल मामले में दिए गए निर्णय का सीधा उल्लंघन है।

    न्यायालय ने आगे कहा,

    "इसलिए हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि गुजरात राज्य में प्रचलित प्रथा जिसके तहत न्यायालय अग्रिम जमानत आवेदन पर विचार करते समय नियमित रूप से प्रतिबंधात्मक शर्त लगाते हैं, जिसके तहत जांच अधिकारियों को अभियुक्त की पुलिस हिरासत रिमांड मांगने की पूरी अनुमति दी जाती है, जिसके पक्ष में अग्रिम जमानत का आदेश पारित किया जाता है, सुशीला अग्रवाल (सुप्रा) मामले में इस न्यायालय के संविधान पीठ के निर्णय के अनुपात का सीधा उल्लंघन है।"

    न्यायालय ने आगे कहा कि सुनीलभाई सुधीरभाई कोठारी (सुप्रा) मामले में गुजरात हाईकोर्ट की खंडपीठ का निर्णय कानून की दृष्टि से सही नहीं है, क्योंकि यह सुशीला अग्रवाल (सुप्रा) मामले के अनुपात के विपरीत है।

    केस टाइटल: तुषारभाई रजनीकांतभाई शाह बनाम गुजरात राज्य, एसएलपी (सीआरएल) नंबर 14489/2023, तुषारभाई रजनीकांतभाई शाह बनाम कमल दयानी डायरी नंबर- 1106 - 2024

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