न्यायिक अधिकारी के रूप में अनुभव को सिविल जज परीक्षाओं के लिए 'तीन साल की प्रैक्टिस' में नहीं गिना जा सकता: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
14 Aug 2025 4:33 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल की प्रैक्टिस नियम पर अपने पहले के आदेश में संशोधन करने की मांग वाली याचिका पर विचार करने से इनकार किया। उक्त आदेश में कहा गया था कि न्यायिक अधिकारी के अनुभव को एक प्रैक्टिसिंग वकील के समकक्ष माना जाए। कोर्ट ने कहा कि इससे भानुमती का पिटारा खुल जाएगा।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन की खंडपीठ हाल ही में आए उस फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें न्यायिक सेवा में प्रवेश स्तर के पदों के लिए आवेदन करने हेतु उम्मीदवार के लिए वकील के रूप में न्यूनतम तीन साल की प्रैक्टिस अनिवार्य की गई।
वकील ने इस फैसले में इस हद तक स्पष्टीकरण मांगा कि न्यायिक अधिकारी के रूप में पूर्व अनुभव को प्रैक्टिसिंग वकील के समकक्ष माना जाए।
उन्होंने बताया,
"मैं ग्वालियर, मध्य प्रदेश में कार्यरत न्यायिक अधिकारी हूं। पिछले कानून के अनुसार, मैंने योग्यता प्राप्त की और 2019 से अब तक सेवारत हूं। जैसा कि माननीय जज जानते होंगे, हमें देश भर में परीक्षाएं देने का अधिकार है - एक न्यायिक अधिकारी के रूप में मेरे अनुभव को वकीलों की प्रैक्टिस के बराबर माना जा सकता है।"
वकील ने आदेश में न्यायालय की उस टिप्पणी का हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि जजों के विधि लिपिक के रूप में कार्य करने के अनुभव को उक्त 3-वर्षीय प्रैक्टिस में गिना जाएगा।
विधि लिपिक के समान ही उदाहरण देते हुए वकील ने ज़ोर देकर कहा,
"क्योंकि विधि लिपिक भी न्यायिक अधिकारियों के अधीन कार्य करते हैं। उनके अनुभव को परीक्षा में बैठने की योग्यता के रूप में गिना जाता है, इसलिए मैं वंचित रह सकता हूं। इसके लिए बस यही एक छोटा-सा स्पष्टीकरण आवश्यक है।"
चीफ जस्टिस ने मामले पर विचार करने से इनकार करते हुए कहा,
"नहीं, आप मध्य प्रदेश न्यायिक परीक्षा में शामिल हों।"
वकील ने ज़ोर देकर कहा कि यह समझना ज़रूरी है कि न्यायिक अनुभव वकालत से 'अधिक समृद्ध' है।
उन्होंने कहा,
"आम धारणा है कि एक बार लिखना दस बार पढ़ने के बराबर होता है। माननीय जज, न्यायिक अनुभव कहीं अधिक समृद्ध है।"
इस फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए चीफ जस्टिस ने कहा,
"यह भानुमती का पिटारा खोल देगा।"
तीन साल की प्रैक्टिस का नियम क्या है?
इस साल मई में अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ मामले में दिए गए फैसले में न्यायालय ने आदेश दिया था,
"सभी हाईकोर्ट और राज्य सरकारें सेवा नियमों में इस आशय का संशोधन करें कि सिविल जज (जूनियर डिवीजन) पद के लिए इच्छुक उम्मीदवारों के पास उक्त परीक्षा के लिए पात्र होने हेतु न्यूनतम तीन साल की प्रैक्टिस अवधि होनी चाहिए।"
न्यायालय ने आगे कहा,
"न्यूनतम प्रैक्टिस वर्षों की उक्त आवश्यकता उन मामलों में लागू नहीं होगी, जहां संबंधित हाईकोर्ट ने सिविल जज के पद के लिए चयन प्रक्रिया पहले ही शुरू कर दी है और यह अगली भर्ती प्रक्रिया के लिए लागू होगी।"
उक्त आवश्यकता को पूरा करने के लिए उम्मीदवार के पास उस न्यायालय के प्रधान न्यायिक अधिकारी या उस न्यायालय के किसी वकील द्वारा, जिसके पास न्यूनतम 10 वर्षों का अनुभव हो, विधिवत प्रमाणित प्रमाणपत्र होना चाहिए, जिसे उस ज़िले के प्रधान न्यायिक अधिकारी या उस थाने के प्रधान न्यायिक अधिकारी द्वारा विधिवत समर्थन प्राप्त हो।
यदि कोई व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट में प्रैक्टिस कर रहा है तो न्यायालय द्वारा नामित किसी अधिकारी द्वारा समर्थित, न्यूनतम 10 वर्षों के अनुभव वाले अधिवक्ता द्वारा जारी प्रमाणपत्र, प्रमाण के रूप में कार्य करेगा।
अपने फैसले में न्यायालय ने कहा कि नए विधि स्नातकों को बिना एक दिन भी प्रैक्टिस किए न्यायिक सेवा में एडमिशन देने से समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई, जस्टिस एजी मसीह और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच ने अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ मामले में यह फैसला सुनाया। इस फैसले में सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षा के लिए पदोन्नति कोटे के संबंध में भी निर्देश जारी किए गए।
प्रारंभ में, अधिकांश राज्यों में यह शर्त थी कि केवल न्यूनतम तीन वर्षों की प्रैक्टिस वाले वकील ही न्यायिक सेवा के लिए आवेदन कर सकते थे।
2002 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यूनतम प्रैक्टिस की आवश्यकता को समाप्त कर दिया था, जिससे नए विधि स्नातकों को मुंसिफ-मजिस्ट्रेट पदों के लिए आवेदन करने की अनुमति मिल गई थी। हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट में आवेदन दायर कर केवल वकीलों के लिए ही आवेदन करने की शर्त को बहाल करने की मांग की गई। कई उच्च न्यायालयों ने भी न्यूनतम प्रैक्टिस की आवश्यकता को बहाल करने के इस कदम का समर्थन किया।
न्यायालय ने 28 जनवरी, 2025 को आवेदनों पर फैसला सुरक्षित रख लिया था। फैसला सुरक्षित रखने के बाद न्यायालय ने न्यूनतम सेवा शर्त के बिना गुजरात हाईकोर्ट द्वारा शुरू की गई भर्ती प्रक्रिया पर रोक लगा दी।
Case Details : MA in ALL INDIA JUDGES ASSOCIATION AND ORS. Versus UNION OF INDIA AND ORS|W.P.(C) No. 1022/1989

