अभियोजन पक्ष द्वारा क्रॉस एक्जामिनेश किए गए गवाह के पक्षद्रोही होने के साक्ष्य को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

29 April 2025 9:24 AM IST

  • अभियोजन पक्ष द्वारा क्रॉस एक्जामिनेश किए गए गवाह के पक्षद्रोही होने के साक्ष्य को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

    तमिलनाडु के 'कन्नगी-मुरुगेसन' ऑनर किलिंग मामले में ग्यारह अभियुक्तों की दोषसिद्धि की पुष्टि करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि किसी गवाह ने मामले के कुछपहलुओं का समर्थन किया है, इसका यह मतलब नहीं कि उसे 'पक्षद्रोही' घोषित किया जाना चाहिए।

    जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस पीके मिश्रा की खंडपीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के 2022 के फैसले को चुनौती देने वाली ग्यारह दोषियों द्वारा दायर अपीलों को खारिज कर दिया, जिसमें उनकी आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा गया था। न्यायालय ने दो पुलिसकर्मियों द्वारा साक्ष्य गढ़ने के लिए दायर अपीलों को भी खारिज कर दिया।

    ऐसा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बचाव पक्ष की इस दलील का जवाब दिया कि पिछले कुछ वर्षों में कई गवाह इसलिए पक्षद्रोही हो गए, क्योंकि उन्होंने पुलिस और कुछ मामलों में मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए गए अपने बयान का खंडन किया। न्यायालय ने कहा कि जब कोई गवाह उस पक्ष की कहानी का खंडन करता है, जिसका वह गवाह है तो अंततः न्यायालय को ही यह निर्णय लेना होता है कि बयान को स्वीकार किया जाए या नहीं।

    न्यायालय ने कहा,

    "'शत्रु गवाह' शब्द का इस्तेमाल आम तौर पर आपराधिक न्यायशास्त्र और अदालती कार्यवाही में किया जाता है। हम भी अपने फैसले में 'शत्रु गवाह' शब्द का इस्तेमाल करने के दोष से बच नहीं सकते। हम व्यावहारिक कारणों से ऐसा करते हैं। इस मामले में 'शत्रु गवाह' जैसे कुछ शब्द अब हमारी कानूनी शब्दावली का हिस्सा बन गए हैं। कम से कम मौजूदा मामले में नए शब्दों या मुहावरों का आविष्कार या प्रतिस्थापन करने का कोई मतलब नहीं है। हम इसे भविष्य के लिए छोड़ देते हैं। लेकिन जो ज़रूरी है, वह यह है कि इस शब्द का अर्थ उस तरह से समझाया जाए जैसा कि इसे अब समझा जाना चाहिए। 'शत्रु गवाह' शब्द का इस्तेमाल ऐसे गवाह के लिए किया जाने लगा है, जो उस पक्ष की कहानी के विपरीत बयान देता है, जिसका वह गवाह है। फिर भी, चूंकि किसी गवाह ने मामले के कुछ, हालाँकि सभी नहीं, पहलुओं का समर्थन किया है, इसका मतलब यह नहीं है कि इस गवाह को 'शत्रु' घोषित किया जाना चाहिए।

    कोई पक्ष साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 के तहत अपने गवाह से जिरह कर सकता है, भले ही 'शत्रुता' की घोषणा न की गई हो। साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 के अंतर्गत क्रॉस एक्जामिनेशन पर एकमात्र प्रतिबन्ध यह है कि जो पक्षकार अपने स्वयं के साक्षी से क्रॉस एक्जामिनेशन करना चाहता है, उसे न्यायालय की अनुमति लेनी होगी। चाहे 'शत्रुता' की घोषणा हो या न हो, एक बात तो स्पष्ट है कि गवाह के साक्ष्य, जिससे ऐसे गवाह को बुलाने वाले पक्ष द्वारा साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 के तहत क्रॉस एक्जामिनेशन की गई है, उसको पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता और यह न्यायालय को देखना है कि ऐसे साक्ष्य से क्या प्राप्त किया जा सकता है।"

    केवल इसलिए साक्ष्य को खारिज नहीं किया जा सकता कि गवाह ने अपना पक्ष बदल दिया

    न्यायालय ने आगे कहा कि जब न्यायालय किसी शत्रुतापूर्ण गवाह के बयान के उस हिस्से पर भरोसा कर सकता है, जिसकी पुष्टि रिकॉर्ड पर मौजूद अन्य साक्ष्यों से होती है। साक्ष्य अधिनियम के तहत ऐसा कोई विशेष प्रतिबंध नहीं है जो यह अनिवार्य करता हो कि ऐसे साक्ष्य को खारिज किया जाना चाहिए। इस प्रकार, यह पूरे साक्ष्य का हिस्सा बन जाएगा, जिसकी जांच न्यायालय अपने निर्णय पर पहुंचने के दौरान कर सकता है। यह न्यायालय को निर्धारित करना है कि उस साक्ष्य को क्या महत्व दिया जाना चाहिए या किसी दिए गए मामले में ऐसे साक्ष्य का उपयोग कैसे किया जाना चाहिए।

    न्यायालय ने कहा,

    "यदि किसी शत्रुतापूर्ण गवाह के साक्ष्य का हिस्सा अन्य विश्वसनीय साक्ष्यों से पुष्टि करता है तो साक्ष्य का वह हिस्सा स्वीकार्य है। एक बार जब अभियोजन पक्ष के गवाह को पक्षद्रोही घोषित कर दिया जाता है। फिर अभियोजन पक्ष द्वारा क्रॉस एक्जामिनेशन की जाती है तो गवाही की सत्यता का मूल्यांकन करना न्यायालय का काम होता है।"

    न्यायालय ने टिप्पणी की कि गवाहों के पक्षद्रोही होने का एक कारण अक्सर मुकदमे में देरी होती है। इस मामले में घटना 2003 में हुई थी। मामला 2010 में ही सेशन कोर्ट को सौंपा गया और 2017 में आरोप तय किए गए। अंत में 18 साल की देरी के बाद 2021 में फैसला सुनाया गया।

    इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने बचाव पक्ष की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि अभियोजन पक्ष के गवाह ज्यादातर पति के परिवार के सदस्य हैं, इसलिए वे इच्छुक गवाह हैं।

    इस मामले में एक युवा अंतरजातीय जोड़े एस मुरुगेसन और डी कन्नगी की नृशंस हत्या की गई थी, जिन्हें लड़की के पिता और भाई ने ज़हर देकर मार डाला था।

    मुरुगेसन केमिकल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएट थे और दलित समुदाय से थे। कन्नगी वाणिज्य ग्रेजुएट थीं और वन्नियार समुदाय से थीं। इस जोड़े ने 5 मई, 2003 को गुप्त रूप से विवाह कर लिया था। जब कन्नगी के परिवार को इस विवाह के बारे में पता चला तो उन्होंने 7 जुलाई, 2003 को उस समय जोड़े को पकड़ लिया, जब वे शहर छोड़ने वाले थे और जोड़े को कीटनाशक (ज़हर) पिला दिया, जिससे उनकी मौत हो गई। बाद में उनके शवों को जला दिया गया।

    इस जोड़े की हत्या को तमिलनाडु राज्य में "ऑनर किलिंग" के पहले मामलों में से एक माना गया। पुलिस की असफल जांच के बाद मामले की जांच CBI को सौंप दी गई।

    2021 में ट्रायल कोर्ट ने कन्नगी के भाई मरुदुपांडियन को मौत की सज़ा सुनाई और उसके पिता समेत 12 अन्य को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। 2022 में मद्रास हाईकोर्ट ने मरुदुपांडियन की मौत की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया और उसके पिता समेत दस अन्य की आजीवन कारावास की सज़ा की पुष्टि की। दो लोगों को बरी कर दिया गया।

    सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही मुरुगेसन के पिता और सौतेली माँ को संयुक्त रूप से 5 लाख रुपये का मुआवज़ा देने का भी निर्देश दिया।

    केस टाइटल: केपी तमिलमारन बनाम राज्य एसएलपी (सीआरएल) नंबर 1522/2023 और इससे जुड़े मामले।

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