तलाकशुदा मुस्लिम महिला शादी में पति को दिए गए तोहफ़े वापस पाने की हकदार: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
3 Dec 2025 10:17 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (2 दिसंबर) को कहा कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) एक्ट, 1986 के तहत शादी के समय अपने पति द्वारा अपने पिता से लिए गए कैश और सोने के गहने वापस पाने की हकदार है।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की बेंच ने कलकत्ता हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया, जिसमें एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के 7 लाख रुपये और शादी के रजिस्टर (क़ाबिलनामा) में बताए गए सोने के गहनों के दावे को खारिज कर दिया गया, जो उसके पिता ने उसके पूर्व पति को तोहफ़े के तौर पर दिए।
अपील करने वाली महिला की शादी 2005 में रेस्पोंडेंट से हुई। 2009 में अलग होने और 2011 में तलाक के बाद उसने 1986 एक्ट की धारा 3 के तहत 17.67 लाख रुपये की रिकवरी के लिए कार्रवाई शुरू की, जिसमें 1.5 लाख रुपये शामिल थे। मैरिज रजिस्टर में 7 लाख कैश और 30 भोरी सोना दर्ज था, जो उसके पिता ने दूल्हे को दिया।
हाईकोर्ट ने काज़ी (मैरिज रजिस्ट्रार) और अपील करने वाले के पिता के बयानों में थोड़ी-सी गड़बड़ी के आधार पर अपील करने वाले का दावा खारिज किया। जबकि काज़ी ने कहा कि मैरिज रजिस्टर में दी गई रकम को पाने वाले का नाम बताए बिना दर्ज किया गया, अपील करने वाले के पिता ने कहा कि रकम रेस्पोंडेंट (दूल्हे) को दी गई थी।
कोर्ट ने माना कि मैरिज रजिस्ट्रार की गवाही, जो ओरिजिनल डॉक्यूमेंट पर आधारित थी, को सिर्फ शक के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने कहा,
"साफ़ तौर पर हाईकोर्ट ने जिस बात पर ध्यान नहीं दिया, वह उस कार्रवाई का आखिरी नतीजा था, जिसमें पिता का वह बयान दिया गया। वह कार्रवाई IPC की धारा 498A से जुड़ी थी... और अपील करने वाले के पिता के इतने सीधे बयान के बावजूद, ट्रायल कोर्ट ने मामले को अपने हाथ में लेते हुए रेस्पोंडेंट को बरी कर दिया... तो हमारी राय में यह नहीं कहा जा सकता कि उस बयान की सबूतों की वैल्यू मैरिज रजिस्ट्रार के बयान के बराबर या उससे ज़्यादा है।"
1986 एक्ट की धारा 3 का मतलब बताते हुए कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि शादी के समय दी गई प्रॉपर्टी, जैसा कि 1986 एक्ट की धारा 3(1)(d) के तहत सोचा गया, तलाकशुदा महिला के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए है और कोर्ट को ऐसा मतलब निकालना चाहिए, जो इस सुरक्षा के इरादे को पूरा करे।
धारा 3(1)(d) के अनुसार, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला "शादी से पहले या शादी के समय या शादी के बाद उसके रिश्तेदारों या दोस्तों या पति या पति के किसी रिश्तेदार या उसके दोस्तों द्वारा दी गई सभी प्रॉपर्टी की हकदार है।"
कोर्ट ने कहा,
"ऊपर बताया गया धारा मेहर/दहेज और/या शादी के समय महिला को दी गई दूसरी प्रॉपर्टी से जुड़ा है- जिससे महिला के लिए ऊपर बताई गई स्थितियों में अपने पति के खिलाफ दावा करने, या अपने पति से दी गई प्रॉपर्टी वापस लेने का रास्ता साफ हो जाता है, जैसा भी मामला हो।"
कोर्ट ने आगे कहा कि इस नियम का मतलब संविधान के आर्टिकल 21 के तहत महिला को मिले सम्मान और आज़ादी के अधिकार के हिसाब से निकाला जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा,
"भारत का संविधान सभी के लिए एक उम्मीद, यानी बराबरी तय करता है, जो ज़ाहिर है, अभी तक हासिल नहीं हुई। इस मकसद को पूरा करने के लिए कोर्ट को अपनी सोच को सोशल जस्टिस के आधार पर रखना चाहिए।
इसे सही संदर्भ में कहें तो 1986 के एक्ट का दायरा और मकसद एक मुस्लिम महिला के तलाक के बाद उसकी इज्ज़त और फाइनेंशियल सुरक्षा को सुरक्षित करना है, जो भारत के संविधान के आर्टिकल 21 के तहत महिलाओं के अधिकारों के मुताबिक है। इसलिए इस एक्ट को बनाते समय बराबरी, इज्ज़त और आज़ादी को सबसे ऊपर रखना चाहिए और इसे महिलाओं के अपने अनुभवों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, खासकर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में अंदर का पेट्रियार्कल भेदभाव आज भी आम बात है।"
इसलिए अपील को मंज़ूरी दी गई और रेस्पोंडेंट को यह निर्देश दिया गया कि वह रकम सीधे पत्नी के बैंक अकाउंट में जमा कर दे, जिसका पालन न करने पर 9% सालाना ब्याज लगेगा।
Cause Title: ROUSANARA BEGUM VERSUS S.K. SALAHUDDIN @ SK SALAUDDIN & ANR.

