केवल गलत आदेश पारित करने के आधार पर अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
2 April 2025 5:09 AM

सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व तहसीलदार के खिलाफ शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही रद्द की। कोर्ट इस मामले में यह फैसला दिया कि दुर्भावना या बाहरी प्रभाव के आरोपों के बिना गलत अर्ध-न्यायिक आदेश अकेले अनुशासनात्मक कार्रवाई को उचित नहीं ठहरा सकते।
कोर्ट ने कहा कि जब आदेश सद्भावनापूर्वक (हालांकि गलत) पारित किया गया तो यह अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का औचित्य नहीं रखता, जब तक कि आदेश बाहरी कारकों या किसी भी तरह के रिश्वत से प्रभावित न हो।
जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस ए.जी. मसीह की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें अपीलकर्ता (जब वह तहसीलदार था) के खिलाफ आदेश पारित करने के 14 साल बाद कथित गलत आदेश पारित करने के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई।
संक्षेप में मामला
1997 में तहसीलदार के रूप में अपीलकर्ता ने मप्र भूमि राजस्व संहिता, 1959 की धारा 57(2) के तहत अर्ध-न्यायिक आदेश पारित किया, जिसमें उचित प्रक्रिया (नोटिस, पंचायत संकल्प, पटवारी रिपोर्ट) के बाद कुछ निजी पक्षों के पक्ष में भूमि का निपटान किया गया। आदेश को अंतिम रूप दिया गया, क्योंकि इसे कभी चुनौती नहीं दी गई।
हालांकि, 2009 में उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया और 2011 में आरोप पत्र जारी किया गया, जिसमें राज्य को नुकसान पहुंचाने वाले अवैध बंदोबस्त का आरोप लगाया गया।
आरोप पत्र को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता ने मप्र हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अर्ध-न्यायिक कृत्यों के लिए न्यायाधीश संरक्षण अधिनियम, 1985 के तहत सुरक्षा की मांग की। साथ ही उन्होंने तर्क दिया कि आरोप पत्र में बाहरी प्रभाव या भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप का उल्लेख नहीं है, जिसके लिए 14 साल की अत्यधिक देरी के बाद अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए।
अस्पष्ट देरी का हवाला देते हुए एकल खंडपीठ ने आरोप पत्र खारिज कर दिया। हालांकि, खंडपीठ ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम के.के. धवन (1993) पर भरोसा करते हुए एकल जज के आदेश को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि लापरवाही/अर्ध-न्यायिक कृत्यों के कारण अनुचित पक्षपात हो सकता है, जिसके लिए अनुशासनात्मक कार्रवाई की आवश्यकता हो सकती है।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई।
हाईकोर्ट की खंडपीठ का निर्णय दरकिनार करते हुए जस्टिस मसीह द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया कि भ्रष्टाचार, बाहरी प्रभाव या बेईमानी के आरोपों के बिना केवल "गलत आदेश" अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही को उचित नहीं ठहरा सकते।
कृष्ण प्रसाद वर्मा बनाम बिहार राज्य, (2019) 10 एससीसी 640 का संदर्भ देते हुए न्यायालय ने कहा कि अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए केवल गलत आदेश नहीं, बल्कि कदाचार का सबूत भी आवश्यक है।
कृष्ण प्रसाद वर्मा के मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया,
"न्यायिक अधिकारियों द्वारा गलत आदेश दिए जाने पर स्वतः ही अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, जब तक कि बाहरी प्रभावों के आधार पर कदाचार के आरोप न हों। ऐसी परिस्थितियों में संबंधित पक्षों को कानून के तहत उपलब्ध सभी उपचारों का लाभ उठाने का अधिकार होगा। यह भी दोहराया गया कि जब तक कदाचार, बाहरी प्रभावों, किसी भी तरह की रिश्वत आदि के स्पष्ट आरोप न हों, तब तक केवल इस आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जानी चाहिए कि न्यायिक अधिकारी द्वारा गलत आदेश पारित किया गया है या केवल इस आधार पर कि न्यायिक आदेश गलत है।"
मामले के तथ्यों पर कानून लागू करते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की:
“वर्तमान मामले में हमारा विचार है कि आरोपपत्र में अपीलकर्ता के विरुद्ध लगाए गए आरोप गलत आदेश की श्रेणी में आते हैं, जो बाहरी कारकों या किसी भी प्रकार की रिश्वत से प्रभावित नहीं प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदेश बिना किसी बेईमानी के सद्भावनापूर्वक पारित किया गया है। इसके अलावा, कारण बताओ नोटिस में उल्लिखित तथ्य ऐसी किसी भी अनुचितता का संकेत नहीं देते हैं। भूमि बंदोबस्त आदेश पारित करते समय अपीलकर्ता द्वारा तहसीलदार के रूप में प्रयोग की गई शक्ति को ऐसी प्रकृति का नहीं माना जा सकता, जिसके लिए उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की आवश्यकता हो। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया, अपीलकर्ता के वकील द्वारा जिस निर्णय पर भरोसा किया गया, वह इस दृष्टिकोण का समर्थन करता है। परिणामस्वरूप, पहला प्रश्न अपीलकर्ता के पक्ष में उत्तरित किया जाता है।”
उपर्युक्त को देखते हुए न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया और एकल पीठ द्वारा पारित आदेश को बहाल करते हुए विवादित आदेश रद्द कर दिया।
केस टाइटल: अमरेश श्रीवास्तव बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य।