न्यायालय को हमेशा विदेशी अभियुक्तों के लिए जमानत की शर्त लगाने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

9 July 2024 10:01 AM IST

  • न्यायालय को हमेशा विदेशी अभियुक्तों के लिए जमानत की शर्त लगाने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायालयों को विदेशी अभियुक्तों के लिए जमानत की शर्त लगाने की आवश्यकता नहीं है, जिसमें उन्हें अपने देश के दूतावास/उच्चायोग से यह आश्वासन प्राप्त करना आवश्यक हो कि वे भारत नहीं छोड़ेंगे और आवश्यकतानुसार न्यायालय के समक्ष उपस्थित होंगे।

    जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुयान की खंडपीठ ने नाइजीरियाई नागरिक की उस अपील को स्वीकार किया, जिसमें उस पर लगाई गई ऐसी शर्त को चुनौती दी गई थी।

    न्यायालय ने कहा,

    “इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक मामले में जहां NDPS मामले में विदेशी नागरिक अभियुक्त को न्यूनतम सजा के 50% से अधिक लंबे कारावास के आधार पर जमानत दी जाती है, दूतावास/उच्चायोग से 'आश्वासन प्रमाणपत्र' प्राप्त करने की शर्त को शामिल किया जाना चाहिए। यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगा।”

    अपीलकर्ता को 21 मई, 2014 को नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (NDPS Act) की धारा 8, 22, 23 और 29 के तहत अपराधों के लिए गिरफ्तार किया गया। 31 मई, 2022 को विशेष NDPS कोर्ट ने उसे विभिन्न नियमों और शर्तों के अधीन जमानत दी, जिसे दिल्ली हाईकोर्ट ने बरकरार रखा। इन शर्तों में 1,00,000 रुपये का जमानत बांड और समान राशि के दो जमानतदार प्रस्तुत करना शामिल था।

    इसके अतिरिक्त, विशेष अदालत ने शर्त लगाई कि नाइजीरिया के उच्चायोग को यह आश्वासन प्रमाण पत्र प्रदान करना होगा कि अपीलकर्ता भारत नहीं छोड़ेगा। आवश्यकतानुसार अदालत के समक्ष उपस्थित होगा।

    अपीलकर्ता ने नाइजीरियाई उच्चायोग से आश्वासन प्रमाण पत्र की आवश्यकता की शर्त को चुनौती दी। दिल्ली हाईकोर्टट ने सुप्रीम कोर्ट लीगल एड कमेटी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1994) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए इस शर्त को बरकरार रखा।

    उन्होंने अन्य शर्त को भी चुनौती दी, जिसके तहत उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए गूगल मैप्स पर पिन डालना होगा कि उनका स्थान हमेशा जांच अधिकारी को उपलब्ध रहे।

    अदालत ने कहा कि NDPS Act की धारा 37 के तहत जमानत देना इस संतुष्टि के अधीन है कि आरोपी के दोषी न होने और जमानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना न होने के लिए उचित आधार हैं। अदालत ने कहा कि एक बार ये आधार पूरे हो जाने के बाद जमानत की शर्तें सीआरपीसी की धारा 437(3) के अनुरूप होनी चाहिए।

    नाइजीरियाई उच्चायोग से आश्वासन के प्रमाण पत्र की आवश्यकता के बारे में अदालत ने स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट लीगल एड कमेटी मामले में उसके पिछले फैसले में उन आरोपियों के लंबित मामलों के लिए यह शर्त लगाने का निर्देश दिया गया, जो फैसले की तारीख को जेल में थे। अदालत ने कहा कि यह एक बार के उपाय के रूप में विलंबित परीक्षणों के कारण जेल में बंद विदेशियों को रिहा करते समय लगाया जाना था।

    अदालत ने कहा कि यदि संबंधित दूतावास या उच्चायोग उचित समय, जैसे सात दिनों के भीतर प्रमाण पत्र प्रदान नहीं करता है, तो अदालत को इस शर्त को माफ करने का विवेकाधिकार है। अदालत ने माना कि इस तरह का प्रमाणपत्र प्राप्त करना अभियुक्त के नियंत्रण से बाहर है।

    अदालत ने कहा,

    इसलिए जब दूतावास/उच्चायोग उचित समय के भीतर ऐसा प्रमाणपत्र प्रदान नहीं करता है, जैसा कि ऊपर बताया गया, तो अभियुक्त, जिसे अन्यथा जमानत का हकदार माना जाता है, उसको इस आधार पर जमानत से वंचित नहीं किया जा सकता है कि ऐसी शर्त, जिसका अनुपालन करना अभियुक्त के लिए असंभव है, उसका अनुपालन नहीं किया गया। इसलिए अदालत को शर्त हटानी होगी।”

    अदालत ने आगे कहा,

    यदि दूतावास प्रतिकूल आचरण के आधार पर इनकार के लिए कारण प्रदान करता है तो अदालत जमानत की शर्त को समाप्त करने के लिए आवेदन पर निर्णय लेते समय इन कारणों पर विचार कर सकती है।

    अदालत ने कहा कि प्रतिकूल रूप से दर्ज करने के कई कारण हो सकते हैं, जो पहले से दी गई जमानत अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकते। अदालत ने कहा कि ऐसे मामले में पासपोर्ट जमा करने और स्थानीय पुलिस या ट्रायल कोर्ट को नियमित रूप से रिपोर्ट करने की शर्त लगाई जा सकती है, जो मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है।

    गूगल मैप्स पर पिन डालने की शर्त के बारे में अदालत ने कहा कि ऐसी शर्त संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अपीलकर्ता के निजता के अधिकार का उल्लंघन करेगी।

    इसलिए अदालत ने अपीलकर्ता के जमानत आदेश से इन दो शर्तों को हटा दिया।

    केस टाइटल- फ्रैंक विटस बनाम नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और अन्य।

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