चीफ जस्टिस को आंतरिक जांच रिपोर्ट राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजते हुए जज को हटाने की सिफ़ारिश करने का अधिकार: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

8 Aug 2025 10:16 AM IST

  • चीफ जस्टिस को आंतरिक जांच रिपोर्ट राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजते हुए जज को हटाने की सिफ़ारिश करने का अधिकार: सुप्रीम कोर्ट

    अघोषित नकदी विवाद में जस्टिस यशवंत वर्मा को दोषी ठहराने वाली आंतरिक समिति की रिपोर्ट के ख़िलाफ़ दायर रिट याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) को जज को हटाने की सिफ़ारिश करते हुए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को रिपोर्ट भेजने का अधिकार है।

    न्यायालय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तैयार की गई आंतरिक प्रक्रिया में वह प्रावधान (पैराग्राफ 7(ii)) "कानूनी और वैध" है, जिसके तहत चीफ जस्टिस को समिति की रिपोर्ट के साथ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को रिपोर्ट भेजने की आवश्यकता होती है।

    न्यायालय ने कहा,

    "न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में चीफ जस्टिस का अपने अन्य कर्तव्यों के अलावा, देश की जनता के प्रति यह कर्तव्य भी है कि वह न्याय व्यवस्था को शुद्ध, स्वच्छ और प्रदूषणमुक्त बनाए रखें। यह सोचना भी अनुचित है कि वर्तमान प्रकृति की किसी घटना के बावजूद, चीफ जस्टिस संसद द्वारा कार्रवाई किए जाने का इंतज़ार करेंगे। जैसा कि पहले कहा गया, अनुच्छेद 124 को लागू करना या न करना संसद पर निर्भर करता है। अगर चीफ जस्टिस को किसी जज की लापरवाही की जानकारी मिलती है तो उनके पास संस्थागत अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए आवश्यक कार्रवाई करने का नैतिक और कानूनी अधिकार है। संस्था की विश्वसनीयता पर कोई भी प्रतिकूल प्रभाव भारी पड़ सकता है।"

    न्यायालय ने आगे कहा कि उसे नहीं पता कि चीफ जस्टिस ने वास्तव में जस्टिस वर्मा को हटाने की सिफारिश की है या नहीं, क्योंकि चीफ जस्टिस का पत्र सार्वजनिक डोमेन में नहीं है। हालांकि, अगर चीफ जस्टिस ने ऐसी सिफारिश की भी है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।

    आगे कहा गया,

    "हम पुनः कहते हैं कि याचिकाकर्ता की तरह हमें भी इस बात की जानकारी नहीं है कि चीफ जस्टिस ने समिति की रिपोर्ट और याचिकाकर्ता के 6 मई, 2025 के उत्तर को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजते समय क्या टिप्पणी की थी। हालांकि, यदि चीफ जस्टिस ने वास्तव में रिपोर्ट में निहित समिति के निष्कर्षों को दोहराया है। याचिकाकर्ता को पद से हटाने की कार्यवाही शुरू करने की सिफ़ारिश की है तो ऐसी सिफ़ारिश को किसी भी वैध और कानूनी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। हालांकि, चीफ जस्टिस की सिफ़ारिश का बहुत महत्व है। फिर भी यह समझना होगा कि प्रक्रिया के तहत चीफ जस्टिस द्वारा दी गई सूचना केवल राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के लिए है, किसी और के लिए नहीं।"

    न्यायालय ने के. वीरस्वामी बनाम भारत संघ (1991) में तैयार की गई आंतरिक प्रक्रिया की पवित्रता को भी बरकरार रखा।

    आंतरिक प्रक्रिया को बरकरार रखते हुए यह टिप्पणी की गई:

    "यदि हम मिस्टर कपिल सिब्बल की दलील को मान लें तो सुप्रीम कोर्ट और चीफ जस्टिस किसी हाईकोर्ट के कार्यरत जज के विरुद्ध घोर कदाचार के आरोपों के बावजूद भी कोई कार्रवाई करने में असमर्थ होंगे, जो विधायी मंशा नहीं हो सकती। कदाचार की घटनाओं की बढ़ती चिंता को दूर करने के लिए इस प्रक्रिया को इस प्रकार से डिज़ाइन किया गया कि जजों को ऐसे कदाचार के लिए आंतरिक रूप से अनुशासित किया जा सके, जो उनके पद और उस संस्थान की गरिमा को धूमिल करने के लिए पर्याप्त हो।"

    अंतर्राष्ट्रीय प्रक्रिया संवैधानिक अंतराल को भरती है, जहां कदाचार अनुच्छेद 124 में परिकल्पित स्तर तक नहीं पहुंचता।

    न्यायालय का कहना है कि किसी जज को हटाने का एकमात्र औपचारिक आधार "सिद्ध कदाचार" या "अक्षमता" है, लेकिन जजों का सभी कदाचार उस स्तर तक नहीं पहुंचता। ऐसे मामलों में संवैधानिक अंतराल आंतरिक प्रक्रिया द्वारा भरा जाता है।

    न्यायालय ने आगे कहा,

    "चूंकि संविधान के तहत न्यायिक कदाचार से निपटने का एकमात्र औपचारिक तंत्र संसद द्वारा महाभियोग है, इसलिए यह याद रखना चाहिए कि जजों का सभी कदाचार आवश्यक रूप से "सिद्ध कदाचार" के स्तर तक नहीं पहुंचता, जिसके लिए अनुच्छेद 217 और 218 के साथ अनुच्छेद 124 के खंड (4) और (5) भी लागू होते हैं। सिद्ध कदाचार के स्तर तक न पहुंचने वाले मामलों पर संविधान की चुप्पी एक महत्वपूर्ण संरचनात्मक भेद्यता पैदा करती है, जिसका समाधान प्रक्रिया द्वारा किया गया। यह प्रक्रिया जजों की बेलगाम कार्य स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती है। इस प्रकार उन परिणामों को रोकने का प्रयास करती है जो हानिकारक या अन्यायपूर्ण हो सकते हैं।"

    जस्टिस वर्मा द्वारा दायर रिट याचिका में चीफ जस्टिस द्वारा आंतरिक समिति की रिपोर्ट को आगे बढ़ाने और यदि जज इस्तीफा नहीं देते हैं या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति नहीं लेते हैं तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को जज को हटाने की सिफारिश करने से संबंधित संवैधानिक मुद्दे भी उठाए गए थे। यह तर्क दिया गया कि चूंकि पूर्व चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने जस्टिस वर्मा को हटाने की सिफ़ारिश के साथ आंतरिक समिति की रिपोर्ट आगे बढ़ा दी थी, इसलिए यह संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाने का आधार बन गया।

    इन तर्कों को खारिज करते हुए जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ए.जी. मसीह की खंडपीठ ने कहा कि देश की न्यायपालिका को पारदर्शी, कुशल और संवैधानिक रूप से उचित तरीके से कार्य करने के लिए सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी होने के नाते चीफ जस्टिस की "महत्वपूर्ण नैतिक ज़िम्मेदारी" है।

    खंडपीठ ने आगे कहा,

    "यह मान्यता कि स्व-निर्धारित नैतिक मानदंड न्यायपालिका की विश्वसनीयता के अभिन्न अंग हैं, संस्था के अनुशासन और विस्तार से अखंडता को बनाए रखने के लिए गैर-वैधानिक लेकिन पूरी तरह से कानूनी आंतरिक प्रक्रिया की आधारशिला है। इस व्याख्या के आधार पर हमारा मानना है कि प्राप्त शिकायतों के सार को ध्यान में रखते हुए क्या, कहां और कब कार्रवाई करनी है, इस बारे में चीफ जस्टिस का विवेक स्पष्ट रूप से एक विनियमित विवेक होगा; लेकिन, एक बार जब चीफ जस्टिस द्वारा गेंद को लुढ़का दिया जाता है तो यह राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को उनकी सिफारिश/सलाह के साथ समाप्त होना चाहिए, जो इस बात पर निर्भर करता है कि समिति अपने निष्कर्षों के रूप में क्या दर्ज करती है।"

    यह मानते हुए कि चीफ जस्टिस ने समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के निष्कर्षों का समर्थन किया और याचिकाकर्ता के विरुद्ध पद से हटाने की कार्यवाही शुरू करने की सिफ़ारिश की है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि चीफ जस्टिस समिति और राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री के बीच कोई साधारण डाकघर नहीं हैं कि रिपोर्ट बिना किसी टिप्पणी/सिफ़ारिश के आगे भेज दी जाए। चीफ जस्टिस स्पष्ट रूप से एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, यदि सबसे महत्वपूर्ण नहीं तो संस्थागत हित और विश्वसनीयता बनाए रखने की व्यापक योजना में ताकि यह पता लगाया जा सके कि किसी न्यायाधीश ने कदाचार किया है या नहीं।"

    यदि आंतरिक समिति गंभीर कदाचार पाती है और उसे हटाने का सुझाव देती है तो चीफ जस्टिस उस विचार का समर्थन कर सकते हैं।

    इसके अलावा, न्यायालय ने आगे कहा कि जब समिति स्वयं आरोप में तथ्य पाती है और पाती है कि कदाचार इतना गंभीर है कि उसे हटाने की कार्यवाही शुरू करने की आवश्यकता है तो चीफ जस्टिस को आंतरिक प्रक्रिया में ऐसे विचारों का समर्थन करने का अधिकार है।

    न्यायालय ने कहा,

    "यहां एक क्षण रुककर अगर चीफ जस्टिस का मानना है कि मामले की गहन जांच की आवश्यकता है तो उनसे और क्या अपेक्षा की जा सकती है? हम यह जोड़ना चाहते हैं कि जहां समिति (चीफ जस्टिस द्वारा गठित) स्वयं आरोपों में तथ्य पाती है। साथ ही पाया गया कदाचार इतना गंभीर है कि निष्कासन की कार्यवाही शुरू करने की आवश्यकता है, वहां चीफ जस्टिस के पास उचित स्थिति में जांच रिपोर्ट भेजते समय ऐसे निष्कर्षों का समर्थन करने का अधिकार है।"

    आंतरिक प्रक्रिया निष्प्रभावी नहीं, लेकिन चीफ जस्टिस द्वारा आंतरिक समिति की रिपोर्ट का समर्थन करने से कोई पूर्वाग्रह नहीं होगा

    यह टिप्पणी करती है कि आंतरिक प्रक्रिया "निष्प्रभावी" नहीं है, क्योंकि इससे महाभियोग की कार्यवाही शुरू हो सकती है, जैसा कि एडिशनल जिला एवं सेशन बनाम रजिस्ट्रार जनरल, मध्य हाईकोर्ट में स्वीकार किया गया।

    लेकिन यह याचिकाकर्ता के इस तर्क को खारिज करता है कि चीफ जस्टिस द्वारा समिति की रिपोर्ट को आगे बढ़ाने और महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने की सिफारिश करने से इस तरह का पूर्वाग्रह पैदा होगा, जिससे संसद के सदस्य प्रभावित होंगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जज जांच अधिनियम की अपनी विशिष्ट व्यवस्था है, जिसका पालन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(5) के अनुसार किया जाता है।

    आगे कहा गया,

    "इसके बाद यह तर्क कि संसद के किसी एक या दोनों सदनों के सदस्य चीफ जस्टिस की राय से प्रभावित हो सकते हैं, स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि यह राय न तो लोकसभा अध्यक्ष को और न ही राज्यसभा के सभापति को भेजी जाती है। तर्क के लिए, यदि यह मान भी लिया जाए कि संसद सदस्यों को चीफ जस्टिस की सिफ़ारिश/सलाह, यदि कोई हो, प्राप्त हो चुकी है तो भी इससे कोई खास फ़र्क़ नहीं पड़ता। जांच अधिनियम में एक विशिष्ट व्यवस्था शामिल है जिसका सदन/सदनों में महाभियोग प्रस्ताव प्रस्तुत करने से पहले वैधानिक रूप से पालन किया जाना आवश्यक है।"

    Case Details: XXX v THE UNION OF INDIA AND ORS|W.P.(C) No. 699/2025

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