अनुच्छेद 30 का उद्देश्य अल्पसंख्यकों को 'घेट्टो' में बसाना नहीं, पसंद का अधिकार देना है: एएमयू मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट [दिन 3]
Shahadat
11 Jan 2024 4:31 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (11 जनवरी) को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित संदर्भ पर सुनवाई करते हुए मौखिक रूप से टिप्पणी की कि अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान की सुरक्षा केवल इसलिए खत्म नहीं हो जाती, क्योंकि प्रशासन में अन्य लोग शामिल हैं।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने रेफरेंस पर सुनवाई कर रही सात जजों की बेंच की अध्यक्षता करते हुए कहा,
"अनुच्छेद 30 का उद्देश्य अल्पसंख्यकों को यहूदी बस्ती (घेट्टो) में बसाना नहीं है। इसलिए यदि आप अन्य लोगों को अपनी संस्था के साथ जुड़ने देते हैं तो यह अल्पसंख्यक संस्था के रूप में आपके चरित्र पर कोई असर नहीं डालता है।"
अनुच्छेद 30(1) में प्रयुक्त शब्द "विकल्प" पर जोर देते हुए सीजेआई ने कहा कि अल्पसंख्यकों को विकल्प दिया गया कि वे संस्थान का संचालन स्वयं करें या दूसरों से कराएं।
सीजेआई ने कहा,
"अनुच्छेद 30 यह अनिवार्य नहीं करता है कि प्रशासन स्वयं अल्पसंख्यकों द्वारा किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 30 जिस पर विचार करता है और पहचानता है, वह अधिकार है, मुख्य रूप से पसंद का अधिकार। अल्पसंख्यकों को उस तरीके से प्रशासन करने का विवेक दिया गया है, जिसे वे उचित समझते हैं। अनुच्छेद 30 का अनिवार्य तत्व अल्पसंख्यकों को पसंद का अधिकार देना है।"
सीजेआई ने बुधवार की सुनवाई के दौरान भी ऐसी ही टिप्पणी की थी।
उन्होंने कहा था,
"मात्र तथ्य यह है कि प्रशासन के कुछ हिस्से की देखभाल गैर-अल्पसंख्यक उम्मीदवारों द्वारा भी की जाती है, जिनके पास संस्थान के साथ उनकी सेवा/संबंध के आधार पर प्रतिनिधित्व की आवाज है, इस अर्थ में संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को कमजोर नहीं किया जाएगा... एक बार एक शिक्षा संस्थान स्थापित करने का विकल्प मान्यता प्राप्त है, अल्पसंख्यक के रूप में यह विकल्प आपका है। यदि आप अनुच्छेद 30 का लाभ प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको इसे स्वयं स्थापित करना होगा। यदि कोई और आपके संस्थान का प्रबंधन करना चाहता है तो आप उसे चुनौती दे सकते हैं। लेकिन, ''आप किस हद तक प्रशासन का अधिकार दूसरों को सौंपना चाहते हैं, यह फिर से आपकी पसंद है।''
सीजेआई की टिप्पणी के जवाब में आज एएमयू ओल्ड बॉयज एसोसिएशन की ओर से पेश सीनियर वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि वह खुद दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज की गवर्निंग बॉडी का हिस्सा थे।
सिब्बल ने कहा,
सेंट स्टीफंस के अधिकांश शासी निकाय के सदस्य गैर-अल्पसंख्यक लोग थे। उन्होंने बताया कि अल्पसंख्यकों के पास प्रशासन के सभी पहलुओं से निपटने में विशेषज्ञता नहीं हो सकती है और उन्हें दूसरों को शामिल करना पड़ सकता है। किसी संस्थान की उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि उसकी अल्पसंख्यक स्थिति निर्धारित करने में प्रासंगिक परीक्षण हैं।
जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा भी पीठ में शामिल हैं।
यह पीठ इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2006 के फैसले से उत्पन्न एक संदर्भ पर सुनवाई कर रही है, जिसमें कहा गया कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
2019 में सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने इस मुद्दे को 7 जजों की बेंच के पास भेज दिया। मामले में उठने वाले मुद्दों में से एक यह है कि क्या यूनिवर्सिटी, जो क़ानून (एएमयू एक्ट 1920) द्वारा स्थापित और शासित है, अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है।
एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ (5-न्यायाधीश पीठ) में सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले की सत्यता, जिसने एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति को खारिज कर दिया और एएमयू एक्ट में 1981 का संशोधन, जिसने यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा दिया, उसका भी संदर्भ दिया गया।
केस टाइटल: अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, रजिस्ट्रार फैजान मुस्तफा बनाम नरेश अग्रवाल सी.ए. के माध्यम से। नंबर 002286/2006 और संबंधित मामले