75 साल पुराने गणतंत्र को इतना अस्थिर नहीं होना चाहिए कि शायरी या कॉमेडी से शत्रुता पैदा होने लगे: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
28 March 2025 10:22 AM

कलात्मक अभिव्यक्ति और असहमतिपूर्ण विचारों के खिलाफ आपराधिक कानून के बढ़ते दुरुपयोग की कड़ी निंदा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक संरक्षण व्यक्त किए गए विचारों की लोकप्रिय स्वीकृति पर निर्भर नहीं है।
सोशल मीडिया पर साझा की गई एक ग़ज़ल को लेकर कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात पुलिस द्वारा दर्ज की गई FIR खारिज करते हुए कोर्ट ने अफसोस जताया कि आजादी के 75 साल बाद भी हमारी पुलिस मशीनरी संवैधानिक गारंटियों से अवगत नहीं है।
न्यायालय ने विरोधी विचारों के प्रति समाज की असहिष्णुता को फटकारते हुए कहा:
"हमारे गणतंत्र के 75 साल बाद भी हम अपने मूल सिद्धांतों पर इतने कमजोर नहीं दिख सकते कि किसी ग़ज़ल या किसी भी तरह की कला या मनोरंजन जैसे स्टैंड-अप कॉमेडी के मात्र पाठ से विभिन्न समुदायों के बीच दुश्मनी या घृणा पैदा होने का आरोप लगाया जा सके। इस तरह के दृष्टिकोण को अपनाने से सार्वजनिक क्षेत्र में विचारों की सभी वैध अभिव्यक्तियां बाधित होंगी, जो एक स्वतंत्र समाज के लिए बहुत ज़रूरी है।"
जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुयान की खंडपीठ ने कहा कि यह मामला दिखाता है कि हमारे संविधान के अस्तित्व में आने के 75 साल बाद भी राज्य की कानून प्रवर्तन मशीनरी संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत नागरिकों को दिए गए महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार के बारे में या तो अनभिज्ञ है या इस मौलिक अधिकार की परवाह नहीं करती है।
विचाराधीन नज़्म "ऐ खून के प्यासे" थी, जिसका पाठ वीडियो सांसद ने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर साझा किया था। गुजरात पुलिस ने FIR दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि शायरी ने समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा किया, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई और राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक है। FIR में भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 196, 197(1), 302, 299, 57 और 3(5) के तहत दंडनीय अपराध दर्ज किए गए।
नज़्म का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है; यह प्रेम और अहिंसा का संदेश देती है
कोर्ट ने कहा कि नज्म को सीधे पढ़ने से पता चलता है कि इसका किसी धर्म या समुदाय से कोई लेना-देना नहीं है, न ही इसका राष्ट्रीय एकता या देश की संप्रभुता को खतरे में डालने वाला कोई मतलब है। नज़्म के अनुसार, अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए लड़ते हुए अगर हमारे साथ अन्याय होता है तो हम उसका सामना प्यार से करेंगे। यह सिंहासन (शासकों) को चेतावनी देता है कि अगर हमारे प्रियजनों के शव शासकों के लिए खतरा हैं, तो हम अपने प्रियजनों को खुशी-खुशी दफना देंगे।
नज़्म अहिंसा का संदेश देती है कि अन्याय का सामना प्रेम से किया जाएगा। 'सिंहासन' अन्याय फैलाने वाले शासकों का प्रतीकात्मक संदर्भ है। यह चेतावनी देता है कि अगर प्रियजनों के शव सिंहासन के लिए खतरा हैं तो हम अपने प्रियजनों की मृत्यु को खुशी से स्वीकार करेंगे।
फैसले में FIR में लगाई गई प्रत्येक धारा की जांच की गई और पाया गया कि उनमें से कोई भी धारा लागू नहीं होती।
"नज़्म को सरलता से पढ़ने पर हम पाते हैं कि इसका किसी धर्म, जाति, समुदाय या किसी विशेष समूह से कोई लेना-देना नहीं है। नज़्म के शब्द वैमनस्य या घृणा या दुर्भावना की भावना नहीं लाते या बढ़ावा नहीं देते। यह केवल शासक द्वारा किए गए अन्याय को चुनौती देने का प्रयास करता है। यह कहना असंभव है कि अपीलकर्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द सार्वजनिक शांति को भंग करते हैं या भंग करने की संभावना रखते हैं। इसलिए धारा 196 (1) के न तो खंड (ए) और न ही खंड (बी) लागू होते हैं। अपीलकर्ता के खिलाफ किसी भी व्यायाम, आंदोलन, ड्रिल या इसी तरह की गतिविधि के आयोजन का कोई आरोप नहीं है। अपीलकर्ता के खिलाफ कोई आरोप नहीं है कि उसने किसी पूजा स्थल या धार्मिक पूजा या धार्मिक समारोहों के प्रदर्शन में लगे किसी भी समूह में ये शब्द कहे हैं। इसलिए खंड (सी) लागू नहीं होगा। अपीलकर्ता ने सामूहिक विवाह समारोह का वीडियो डाला है। पृष्ठभूमि में शब्द बोले गए हैं। इसलिए धारा 196 लागू नहीं हो सकती।"
इसी तरह धारा 197 (राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक अभियोग), धारा 299/302 (धार्मिक भावनाओं का जानबूझकर अपमान) भी अनुपयुक्त पाए गए।
न्यायालय ने टिप्पणी की,
"कम से कम यह कहना हास्यास्पद है कि अपीलकर्ता के कृत्य का उद्देश्य किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना है। नज़्म केवल शासकों को बताती है कि अधिकारों की लड़ाई के साथ अन्याय होने पर क्या प्रतिक्रिया होगी।"
निर्णय में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा जब वे बॉम्बे हाईकोर्ट जज थे, आनंद चिंतामणि दिघे एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में की गई टिप्पणियों को भी उद्धृत किया गया:
"नाटककार, कलाकार, लेखक और शायर/कवि के अधिकार तब समाप्त हो जाएंगे, जब किसी संदेश को चित्रित करने की स्वतंत्रता- चाहे वह कैनवास, गद्य या पद्य में हो - उस संदेश की स्वीकार्यता की लोकप्रिय धारणा पर निर्भर होगी। लोकप्रिय धारणाएं स्वतंत्रता की गारंटी जैसे संवैधानिक मूल्यों को खत्म नहीं कर सकतीं।"
केस टाइटल- इमरान प्रतापगढ़ी बनाम गुजरात राज्य