राजस्व गांवो का निर्माण विधायी नहीं, प्रशासनिक कार्य, मनमाना न हो तो हस्तक्षेप नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट
Amir Ahmad
27 Sept 2025 2:51 PM IST

राजस्थान हाईकोर्ट ने ग्राम सभा की बैठक बुलाए बिना नए राजस्व ग्रामों के निर्माण को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं को खारिज कर दिया। न्यायालय ने कहा कि किसी ग्राम का निर्माण या राजस्व ग्राम की सीमा में परिवर्तन ग्राम की विशिष्ट आवश्यकताओं पर निर्भर करता है। इसलिए यह अनिवार्य रूप से एक प्रशासनिक कार्य है।
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि नए राजस्व ग्रामों के निर्माण का प्रस्ताव पंचायती राज अधिनियम और नियमों के प्रावधानों के अनुसार ग्राम सभा की बैठक बुलाए बिना ही प्रस्तुत किया गया।
इसके अलावा यह भी तर्क दिया गया कि कुछ प्रस्तावित ग्रामों के नाम स्थानीय निवासियों के नाम पर रखे गए, जो सर्कुलर का भी उल्लंघन है।
जस्टिस कुलदीप माथुर की पीठ ने कहा कि इन परिपत्रों का कोई वैधानिक बल नहीं है, जब तक कि यह संदेह से परे स्थापित न हो जाए कि राजस्व गांवों का नाम किसी विशेष व्यक्ति, देवता या जाति के नाम पर किसी विशेष धर्म/राजनीतिक समूह/राजनीतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति को खुश करने के लिए मनमाने और दुर्भावनापूर्ण तरीके से रखा गया तब तक कोई चुनौती नहीं दी जा सकती।
"यह इस कारण से भी है कि ऐतिहासिक रूप से भारतीय शहरों और कस्बों, ग्रामीण और शहरी दोनों, का नामकरण धार्मिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक हस्तियों के मिश्रण, भौगोलिक विशेषताओं और औपनिवेशिक पहचान के आधार पर किया गया। राजस्व गांवो के निर्माण के एक विधायी अधिनियम होने के संबंध में प्रतिवादियों द्वारा उठाए गए तर्कों को खारिज किया जाता है। इस प्रकार यह माना जाता है कि 1956 के अधिनियम की धारा 16 के तहत नए राजस्व गांवो के निर्माण का कार्य एक प्रशासनिक कार्य है, जो सरकार के प्रशासनिक/नीतिगत निर्णय पर आधारित है।"
न्यायालय ने आगे कहा,
"हालांकि यह कानून की एक स्थापित स्थिति है कि प्रशासनिक निर्णय कार्यपालिका का विशेषाधिकार हैं। न्यायालय को आमतौर पर उनमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। फिर भी यदि यह पाया जाता है कि ये निर्णय मनमाने ढंग से दुर्भावनापूर्ण इरादे से या बिना सोचे-समझे यांत्रिक तरीके से लिए गए तो इनमें हस्तक्षेप किया जा सकता है।”
न्यायालय ने सबसे पहले भारत संघ बनाम साइनामाइड इंडिया लिमिटेड एवं अन्य के सुप्रीम कोर्ट के मामले का उल्लेख किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने विधायी प्रशासनिक और अर्ध-न्यायिक कृत्यों के बीच अंतर किया और कहा,
"क्षेत्रीय समायोजन के माध्यम से नए राजस्व गांवो का निर्माण प्रशासनिक सुविधा और प्रभावी भू-राजस्व प्रबंधन की आवश्यकता से प्रेरित है। एक नए राजस्व गांव की स्थापना का निर्णय गांव की विशिष्ट आवश्यकताओं के आधार पर लिया जाता है, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विकास के लाभ जैसे जल आपूर्ति, सड़कें, स्वास्थ्य सुविधाएं, विद्युतीकरण आदि सभी नागरिकों तक पहुंचे न कि केवल मुख्य बस्ती क्षेत्र के लोगों तक ही सीमित रहें।"
इसके अलावा, न्यायालय ने राज्य द्वारा प्रस्तुत दूसरे तर्क को स्वीकार कर लिया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा जिन परिपत्रों पर भरोसा किया गया, वे केवल दिशानिर्देश प्रदान करने और प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए थे बिना किसी शर्त के कि उनका पालन न करने पर नए राजस्व गांव के निर्माण की पूरी प्रक्रिया अमान्य हो जाएगी।
राजस्थान हाईकोर्ट के कुछ उदाहरणों का भी हवाला दिया गया, जिनमें कहा गया कि नए राजस्व गांव के नामकरण की वैधता की जांच न्यायालय अपने रिट क्षेत्राधिकार के तहत तब तक नहीं कर सकता जब तक यह साबित न हो जाए कि ऐसा नामकरण किसी जीवित व्यक्ति का महिमामंडन करने के इरादे से या किसी निर्वाचित प्रतिनिधि के प्रभाव में किया गया था।
इस पृष्ठभूमि और परिपत्रों के अंतर्गत दिशानिर्देशों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जहां तक संभव हो राज्य सरकार को किसी भी व्यक्ति, जाति, उपजाति या धर्म के नाम पर राजस्व गांव का नामकरण नहीं करना चाहिए। सर्कुलर में कोई वैधानिक बल नहीं था इसलिए चुनौती का दायरा सीमित था जैसा कि पहले उल्लेख किया गया।
अंततः सामान्य सहमति या अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) न लिए जाने के आधार पर की गई चुनौती पर न्यायालय ने माना कि परिपत्र कहीं भी प्राधिकारियों को ऐसी सहमति या अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए ग्राम सभा की बैठक बुलाने के लिए बाध्य नहीं करते।
तदनुसार याचिकाएं खारिज कर दी गईं।

