नौकरशाही की चूक के लिए कोई क्षमादान नहीं: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने राज्य द्वारा अपील दायर करने में 992 दिनों की देरी खारिज की
Shahadat
7 Oct 2025 10:02 AM IST

यह दोहराते हुए कि पर्याप्त न्याय की आड़ में समय-सीमा के कानून को पराजित नहीं किया जा सकता, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने अपील दायर करने में 992 दिनों की देरी के लिए क्षमादान की मांग करने वाली राज्य की याचिका खारिज की।
जस्टिस सुदीप्ति शर्मा ने कहा,
"अब यह एक सुस्थापित सिद्धांत बन गया कि न्यायालय पर्याप्त न्याय के पक्ष में तो झुकते हैं। हालांकि, वे समय-सीमा के कानून को पराजित करके या विरोधी पक्ष को गंभीर नुकसान पहुंचाकर ऐसा नहीं कर सकते। समय-सीमा का कानून सार्वजनिक नीति पर आधारित होने के कारण बार-बार नौकरशाही की चूक या आकस्मिक उदासीनता के पक्ष में कोई अपवाद स्वीकार नहीं करता। चूंकि आवेदक-राज्य क्षमादान के लिए पर्याप्त कारण बताने में विफल रहा है, इसलिए इस न्यायालय को यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि आवेदन में कोई दम नहीं है।"
पंजाब के उपभोक्ता मामले विभाग द्वारा यह याचिका दायर की गई, जिसमें अपील दायर करने में 992 दिनों की देरी को माफ़ करने की मांग की गई।
प्रतिवेदनों पर सुनवाई के बाद अदालत ने कहा कि देरी को उदारता या परोपकार के रूप में माफ़ नहीं किया जाना चाहिए, ठोस न्याय की प्राप्ति प्रतिपक्ष के प्रति पूर्वाग्रह की कीमत पर नहीं हो सकती।
परिसीमा अधिनियम, 1963 यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि वादी उचित समय-सीमा के भीतर अदालत का रुख करें और अपने अधिकारों की अनदेखी न करें। हालांकि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 अदालत को पर्याप्त कारण बताए जाने पर देरी को माफ़ करने का अधिकार देती है। हालांकि, ऐसा विवेक न तो स्वतः है और न ही स्वाभाविक रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए।
जस्टिस शर्मा ने इस बात पर ज़ोर दिया कि लोक नीति पर आधारित होने के कारण परिसीमा कानून इस सुप्रसिद्ध सिद्धांत 'रिपब्लिकाए उट सिट फ़िनिस लिटियम' पर आधारित है कि व्यापक जनहित में मुकदमेबाज़ी का अंत होना चाहिए। इसका उद्देश्य क़ानूनी कार्यवाही में अंतिमता सुनिश्चित करना है और जनहित निस्संदेह समय पर सरकारी कार्रवाई से बेहतर तरीके से पूरा होता है, बजाय इसके कि बार-बार होने वाली चूकों को टाला जा सके।
यह कहते हुए कि "कानून की अपेक्षा है कि अदालत ऐसे मामलों में सावधानी बरतें, अपनी न्यायिक बुद्धि का सावधानीपूर्वक प्रयोग करें और जब दिए गए कारण नौकरशाही की उदासीनता को दर्शाते हों तो देरी को माफ करने में धीमी गति से काम लें," अदालत ने कहा कि केवल असाधारण परिस्थितियों में जहां स्पष्टीकरण वास्तविक पाया जाता है, उचित परिश्रम और तत्परता को दर्शाता है। घोर लापरवाही, जानबूझकर की गई निष्क्रियता, सद्भावना की कमी, या आकस्मिक उदासीनता से मुक्त पाया जाता है, ऐसे विलंब को माफ किया जा सकता है।
भारत संघ बनाम जहांगीर बयरामजी जीजीभॉय मामले का हवाला दिया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने बहाली का मुकदमा दायर करने में 12 साल से ज़्यादा की देरी के लिए माफ़ी मांगने के भारत संघ के तरीके पर नाखुशी ज़ाहिर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (3 अप्रैल) को इस देरी को माफ़ करने से इनकार किया और कहा कि अगर देरी को माफ़ कर दिया गया तो यह न्याय का मज़ाक होगा, क्योंकि इससे डिक्रीधारक को फिर से लंबी मुकदमेबाजी की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा।
राज्य के तर्कों की जांच करते हुए अदालत ने कहा कि आवेदक-राज्य को पूरी छूट देने के बावजूद, दिया गया स्पष्टीकरण न तो "पर्याप्त कारण" बताता है और न ही उपरोक्त उदाहरणों के अनुसार, पूरी देरी का संतोषजनक ढंग से हिसाब देता है।
अदालत ने टिप्पणी की,
"इतनी असाधारण देरी का सामना करते हुए केवल अस्पष्ट दावे या सामान्यीकृत कठिनाइयां माफ़ी के लिए वैधानिक सीमा को पूरा करने से बहुत कम हैं।"
उपरोक्त के आलोक में याचिका खारिज कर दी गई।
Title: THE PRINCIPAL SECRETARY, FOOD CIVIL SUPPLIES AND CONSUMER AFFAIRS DEPARTMENT, PUNJAB AND ORS v. VARINDER KUMAR JAIN

