5 साल की सजा वाले मामले में शख्स 4 साल से ज्यादा जेल में, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने ₹1 करोड़ की जमानत शर्त को गलत बताया

Praveen Mishra

7 March 2025 12:05 PM

  • 5 साल की सजा वाले मामले में शख्स 4 साल से ज्यादा जेल में, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने ₹1 करोड़ की जमानत शर्त को गलत बताया

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने टैक्स फ्रॉड मामले में एक आरोपी को डिफॉल्ट जमानत देने के लिए लगाए गए 1.10 करोड़ रुपये के जमानत बांड की शर्त को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि यह मामला "आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलता की चिंताजनक तस्वीर" पेश करता है।

    कोर्ट ने नोट किया कि आरोपी पिछले 4 साल, 1 महीने और 20 दिन से हिरासत में है, जबकि आरोपित अपराधों के लिए अधिकतम सजा 5 साल है।

    जस्टिस हरप्रीत सिंह ब्रार ने उसे 50,000 रुपये की जमानत राशि पर रिहा करने का निर्देश देते हुए कहा, "इस अदालत का विवेक इस तथ्य से आहत है कि शिकायत वर्ष 2022 में दायर की गई थी, आरोपी पिछले 4 वर्षों से जेल में है, और अब तक मुकदमा शुरू भी नहीं हुआ है। इसके अलावा, जमानत की शर्तें असंगत रूप से कठोर हैं।"

    कोर्ट ने आगे कहा कि यह अदालत "इसे नजरअंदाज नहीं कर सकती कि 'इन रे पॉलिसी स्ट्रेटजी फॉर ग्रांट ऑफ बेल' में दिए गए निर्देशों का पालन नहीं किया गया है। इसे चीफ जस्टिस के समक्ष रखा जाए ताकि वह आवश्यक कार्रवाई कर सकें और निर्देशों का पूर्ण अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके।"

    अदालत ने यह भी कहा कि BNSS की धारा 479 के तहत आरोपी को रिहा न करना, जबकि डिफॉल्ट जमानत का अधिकार संवैधानिक और कानूनी रूप से अपरिहार्य था, "न्याय की गंभीर विफलता" को दर्शाता है।

    BNSS धारा 479 के प्रावधान के अनुसार, आरोपी को रिहा किया जाना चाहिए था क्योंकि वह पहले ही अधिकतम सजा की एक-तिहाई अवधि से अधिक की हिरासत काट चुका है। अदालत CrPC की धारा 482 के तहत दायर उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें लुधियाना के एडिशनल सेशन जज द्वारा पारित आदेश को रद्द करने की मांग की गई थी। इस आदेश में मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा लगाई गई जमानत शर्तों में राहत देने की याचिका खारिज कर दी गई थी।

    याचिकाकर्ता पर केंद्रीय वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम, 2017 की धारा 132(1)(b) और (c) के तहत अपराध का आरोप था, जो धारा 132(1)(i) के तहत दंडनीय है। इसके साथ ही, इस मामले में पंजाब वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम, 2007 और एकीकृत वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम, 2017 (IGST Act) के संबंधित प्रावधान लागू किए गए थे।

    शिकायत के अनुसार, सह-आरोपी इस फर्जी लेन-देन योजना का मुख्य सूत्रधार था। उसने अपने परिवार के सदस्यों और करीबी सहयोगियों के नाम पर 14 फर्जी फर्में बनाई थीं और उन्हें मालिक या भागीदार के रूप में नामित किया था। आरोप है कि उसने अयोग्य इनपुट टैक्स क्रेडिट (ITC) का गलत तरीके से लाभ उठाया और इन बनावटी बिलों के आधार पर ₹17.65 करोड़ का फर्जी इनपुट टैक्स क्रेडिट खरीदारों को पास कर दिया।

    याचिकाकर्ता 2021 में इस मामले में गिरफ्तार हुआ था। हालांकि, अभियोजन पक्ष 60 दिनों की वैधानिक अवधि के भीतर जांच पूरी करने और CrPC की धारा 173 के तहत अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने में विफल रहा। इसके परिणामस्वरूप, पवन कुमार ने CrPC की धारा 167(2) के तहत डिफॉल्ट जमानत के लिए आवेदन किया।

    इस याचिका को स्वीकार कर लिया गया और 15.03.2021 के आदेश के तहत उन्हें 1.10 करोड़ रुपये के जमानत बांड की शर्त पर जमानत दी गई।

    अदालत ने मामले की समीक्षा के दौरान सुप्रीम कोर्ट के "इन रे पॉलिसी स्ट्रेटजी फॉर ग्रांट ऑफ बेल" मामले में दिए गए दिशा-निर्देशों को रेखांकित किया। इस फैसले में उन अंडरट्रायल कैदियों के मुद्दे पर दिशा-निर्देश दिए गए थे जो जमानत मिलने के बावजूद शर्तें पूरी न कर पाने या अन्य कारणों से हिरासत में ही रह जाते हैं।

    अदालत ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन हुआ है, क्योंकि जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण (DLSA) ने याचिकाकर्ता की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया।

    अदालत ने आगे कहा, "रिकॉर्ड पर ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे यह साबित हो कि DLSA को याचिकाकर्ता की परिस्थितियों की जानकारी थी, और न ही कोई सामाजिक-आर्थिक रिपोर्ट तैयार की गई या शर्तों में राहत के लिए कोई अनुरोध किया गया।"

    अदालत ने इसे गंभीर न्यायिक विफलता बताते हुए कहा, "याचिकाकर्ता को बिना सुने दोषी ठहराते हुए चार साल से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया, जबकि अब तक आरोप भी तय नहीं हुए हैं। यह उसके निष्पक्ष सुनवाई के मूलभूत अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। इस निष्क्रियता ने पूर्व-ट्रायल हिरासत को एक दंडात्मक सजा में बदल दिया है, जबकि आपराधिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत यही है कि जब तक दोष सिद्ध न हो, आरोपी निर्दोष माना जाता है।"

    जस्टिस ब्रार ने कहा कि याचिकाकर्ता को अन्यायपूर्ण तरीके से 4 वर्षों से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया, जबकि उसके खिलाफ आरोपित अपराधों के लिए अधिकतम सजा केवल 5 वर्ष है। इसलिए, याचिकाकर्ता को न केवल CrPC की धारा 167(2) के तहत डिफॉल्ट जमानत का अधिकार प्राप्त था, बल्कि BNSS की धारा 479 के तहत भी रिहाई का अधिकार था।

    अदालत ने यह भी नोट किया कि इस मामले में 1.10 करोड़ रुपये के दो जमानतदारों द्वारा जमानत बांड जमा करने और 55 लाख रुपये की बैंक गारंटी जैसी कठोर शर्तें जमानत के लिए पूर्व-आवश्यकता के रूप में लगाई गई थीं। इस पर टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा कि "ऐसा दृष्टिकोण न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों के विपरीत है।"

    आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलता की चिंताजनक तस्वीर

    अदालत ने कहा कि इस मामले के तथ्य "अंडरट्रायल कैदियों के अधिकारों की रक्षा करने में आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलता की चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं।"

    याचिकाकर्ता, डिफॉल्ट जमानत के लिए पात्र होते हुए भी, अत्यधिक कठोर शर्तों के कारण अब तक हिरासत में ही रहा। अदालत ने आगे कहा कि इस मामले को और भी अधिक गंभीर बनाने वाली बात यह है कि याचिकाकर्ता को BNSS की धारा 479 के तहत भी रिहा नहीं किया गया, जबकि वह पहले ही अधिकतम सजा की एक-तिहाई अवधि से अधिक हिरासत में बिता चुका था।

    याचिकाकर्ता को 4 वर्ष से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया, जिससे उसका BNSS की धारा 479 के तहत रिहाई का अधिकार केवल एक पात्रता नहीं, बल्कि एक कानूनी बाध्यता थी। इसके बावजूद, अधिकारियों की ओर से उसकी रिहाई सुनिश्चित न किया जाना प्रक्रियागत न्याय का गंभीर उल्लंघन है।

    अदालत ने यह भी कहा कि जेल अधीक्षक पर BNSS की धारा 479(3) के तहत यह दायित्व था कि वह अदालत को अंडरट्रायल कैदी की जमानत की पात्रता के बारे में सूचित करे, लेकिन इसे या तो नजरअंदाज कर दिया गया या जानबूझकर अनदेखा किया गया, जिससे कानून के स्पष्ट उल्लंघन में याचिकाकर्ता की हिरासत जारी रही।

    इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने याचिका को स्वीकार कर लिया और याचिकाकर्ता पवन कुमार को मुकदमे की सुनवाई के दौरान जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया, कोर्ट ने 50,000 रुपये के जमानत बांड प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।


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